पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/१८

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(९)

तुम जगन्मूल तब मूल न जगदाधारा!
जगदन्तक तुम भगवन्त!: न अन्त तुम्हारा।
जगदादि तुम्हीं, तव आदि नहीं हैं धाता!
जगदीश तुम्हीं हो ईश न तब दिखलाता॥

तुम अपने को लोकेश! आपही जानो;
रच अपने ही से आत्मरूप सुख मानो।
फिर अपने हीं में पाप लीन हो जाते;
यह विश्व चराचर नाथ! तुम्हीं प्रकटाते॥

हो स्थूल, सूक्ष्म, द्रव, कठिन, तुम्हीं निःशेष,
लघु, गुरू भी कारण कार्य तथा विश्वेश!
जिन श्रुतियों का फल स्वर्ग महा सुखकारी,
उत्पन्न हुई वे नाथ! तुम्हीं से सारी॥

भुवनेश! सांख्य की प्रकृति तुम्हीं कहलाते
तत्त्वज्ञ तुम्हीं को पुरुष पुरातन गाते।
तुम देवों के भी देव सर्वगुण-स्वामी,
तुम ब्रह्मा से भी बड़े ब्रह्मा-विज्ञानी॥

१०

सुन ऐसी स्तुति कमनीय, रुचिर, हृदयङ्गम,
प्रमुदित हो, विधि ने कहे वचन यों मृदुतम।
सुस्वागत हे सुरवर्ग! कही क्यों आये?
क्या समाचार सब आज साथहीं लाये?

११

हिम पड़ने से छविहीन यथा नभ तारे,
मुख सरसिज ये क्यों हुए मलीन तुम्हारे?