पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/१९

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(१०)

क्यों कुण्ठित सा यह कुलिश देवपतिवाल
दिखलाती इसमें नहीं अग्नि की ज्वाल॥

१२

हतवीर्य मंत्र से सर्प यथा हो जाता,
क्यों पाश वरूण का कहो दीन दिखल।
वे-गदा धनद के बाहु दण्ड-आकारी
हैं कह से मानो रहे पराभव भारी॥

१३

निस्तेज दण्ड से खींच भूमि पर रेखा,
हैं लगा रहे यमराज कहो क्या लेखा?
क्यों हुए द्वादशादित्य उध्याता-हीन?
सब चित्र लिखे से खड़े प्रतापक्षोण॥

१४

क्या वायुवेग हे देव! हो गया भङ?
जो शिथिलित उसके सर्व अङ्ग प्रत्यङ्ग।
क्या उदक ओघ रुक गया? कहो सुरराज!
जो उलटा बहने लगा अहे वह आज!

१५

क्यों तुम एकादश रुद्र! अधोमुख सारे?
है गये कहाँ हुंकार कटोर तुम्हारे?
क्या तुमसे भी बलवान देवगण! कोई?
जिसने तुम सब की आज प्रतिष्ठा खोई॥

१६

क्या चहते हो? हे वत्स! कथा अब सारी‌,
कह करके, शङ्का हरो समूल हमारी।
तब दृग-सहस्र गुरु ओर इन्द्र ने फेरे,
कमलाकर माने मन्द पवन के प्रेरे॥