(११)
१७
जलजासन सम्मुख हाथ जोड़, तदनन्तर,
वाचस्पति बाले वचन युक्तियुत, सुन्दर।
हे अन्तर्यामी नाथ! सकल-उरवासी!
क्यों छाई सुरगण मध्य अखण्ड-उदासी॥
१८
सो भगवन्! तुमने ठीक ठीक सत्र जाना
छिन गया देव-अधिकार, मान, सम्माना!
तुमसे वर ईप्सित पाय, महाऽसुर तारक
है धूमकेतु सम उदित उपद्रवकारक॥
१९
वि उसके पुर में नित्य नपै उतनाहीं,
जिनने से वापी-कमल-फूल खिल जाहीं।
शशि अपनी सारी कला उसे देता है,
शिववाली केवल एक नहीं लेता है॥
२०
उसकी न वाटिका-बीच वायु जाता है,
तत्पुष्पचौर्य से त्रास सदा पाता है।
इतना ही उसके पास नित्य आता है;
बस पङ्खा जितना मन्द मन्द लाता है॥
२१
क्रम छोड़, फूल की लिये मनोहर डाली,
सारे ऋतु उसके यहाँ हुए हैं माली।
उस असुरराज क गए रत्न रुचिगकृति
देता है जल से ढूंढ ढूंढ सरितापति॥
२२
सब वासुकि आदिक सपे शिखा-मणि-धारी
बनते हैं उसके दीप महा-धुतिकारी।
२