पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/२१

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(१२)

नित कल्पद्रुम के फूल भेज अमरेश
चहते हैं उसकी कृपा-कोर का लेश।

२३

वह इससे भी सन्तुष्ट नहीं होता है;
भुवनत्रय उसले त्रस्त नाथ! रोता है
उपकार न खल को कभी शान्त करता है;
अपकार-मात्र तद्गर्व सर्व हरता है॥

२४

दल लेकर जिसके हुई मुदित सुरबाला,
नन्दन वन उसने वही काट सब डाल
नयनाथुधार-संसिक्त-चार करधारी
करती हैं उस पर पवन अमरपुरनार

२५

उसने उखाड़ कर मेरु-शिखर मन-भाये,
निज घर में क्रीडा़शैल अनेक बनाये।
सुरसरि में दिग्गज[१]दान-मलिन जलही भर
कञ्चन-कमलालय हुए तदीय सरोवर

२६

उसके भय वीथी बन्द, सभी डरता है;
सुरवृन्द घरी में पड़ा सड़ा करता है।
जो कोई मख में हव्य हमें देता है,
सम्मुख ही वह शठ उसे छीन लेता है॥

२७

सुरपति का उच्चैःश्रवा अश्ववर, सो भी,
ले गया असुर वह, नीच, निरंकुश लोभी॥


  1. दान—मद