( ३६ )
१
सम्मुख ही,उस भांति,शम्भु ने कामदेव का करके दाह,
करदी विफल साथ ही उसके,निज-विषयक गिरिजा की चातः उमा ने रम्य रूप को धिक्कारा बहु बार लजाय,
वहीं सुघरता सफल समझिए जो प्रियतम को सके लुभाय
२
लाय समाधि अखण्डित तप का अनुष्ठान करके भारी,
सफल उमा ने करना बाहा अपना रूप मनोहारी।
बिना यह किये कैसें मिलतीं दोनों बातें सुखकारी-
वैसा प्रेम,और,फिर,वैसा मृत्युञ्जय पतित्रिपुरारी॥
३
मेना ने जब सुना कि मेरी कन्या शिव को चहती है;
और,उन्हीं के लिए तपस्या वन में करने कहती है।
तब मुनियों के कठिन धर्म से करती हुई निवारण वह,
बड़े प्रेम से शैलसुता को गले लगा कर बोली यह ।।
४
मनमाने घरही में सुर हैं,सुते!उन्हीं की सेवा कर;
कहाँ क्लेशकारी तप? तेरा कहाँ कलेवर कोमल-तर?
अति मृदु सिरस-फूल मधुकर का हलका पद सह सकता है,
पक्षी का पद सह सकने की नहीं शक्ति वह रखता है।।
५
माता ने,इस भांति,उमा से कहा सभी कुछ मनमाना;
किन्तु न रुकी तपस्या से वह,व्यर्थ हुआ सब समझाना ।
- तृतीय सर्ग की तरह इस सर्ग की भी मूल कविता बहुत ही मने
हारिणी है। इसलिए इस सर्ग का भी पूरा अनुवाद किया गया है
*अनुवादक*