पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/४५

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पञ्चम सर्ग * ।


सम्मुख ही,उस भांति,शम्भु ने कामदेव का करके दाह,
करदी विफल साथ ही उसके,निज-विषयक गिरिजा की चातः उमा ने रम्य रूप को धिक्कारा बहु बार लजाय,
वहीं सुघरता सफल समझिए जो प्रियतम को सके लुभाय


लाय समाधि अखण्डित तप का अनुष्ठान करके भारी,
सफल उमा ने करना बाहा अपना रूप मनोहारी।
बिना यह किये कैसें मिलतीं दोनों बातें सुखकारी-
वैसा प्रेम,और,फिर,वैसा मृत्युञ्जय पतित्रिपुरारी॥


मेना ने जब सुना कि मेरी कन्या शिव को चहती है;
और,उन्हीं के लिए तपस्या वन में करने कहती है।
तब मुनियों के कठिन धर्म से करती हुई निवारण वह,
बड़े प्रेम से शैलसुता को गले लगा कर बोली यह ।।


मनमाने घरही में सुर हैं,सुते!उन्हीं की सेवा कर;
कहाँ क्लेशकारी तप? तेरा कहाँ कलेवर कोमल-तर?
अति मृदु सिरस-फूल मधुकर का हलका पद सह सकता है,
पक्षी का पद सह सकने की नहीं शक्ति वह रखता है।।


माता ने,इस भांति,उमा से कहा सभी कुछ मनमाना;
किन्तु न रुकी तपस्या से वह,व्यर्थ हुआ सब समझाना ।


  • तृतीय सर्ग की तरह इस सर्ग की भी मूल कविता बहुत ही मने

हारिणी है। इसलिए इस सर्ग का भी पूरा अनुवाद किया गया है
*अनुवादक*