पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/५४

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( ४५ )

ऐसे इन नयनो के सम्मुख हुआ नहीं तेरा प्यारा!
निश्चय निज-सौन्दर्य्य-गर्व से ठगा गया वह बेचारा!
५०
है शैलेशनन्दिनी! कब तक किया कोयी श्रम ऐसा?
ब्रह्मवर्य्य-आश्रम वर का है मेरा भी तय थोड़ा सा।
उसके अर्द्धभाग से अपनी मनोकामना पूरी कर;
किन्तु मुझे बतला तो किसको करना चहता है तू वर॥
५१
उस द्विज ने आश्रम के भीतर आकर इस प्रकार भाखा;
गिरितम्या परन्तु लज्जा-वश कह न सकी निज अभिलाषा
अपने कज्जल-हीन विलोचन उसने केवल ऊँचे कर,
वहीं पासवाली आली को अवलोका, उस अवसर पर॥
५२
बोली सखी शैलतनया की हे द्विज ब्रह्मचर्य्य-धारी!
यदि सुनना चहता है, सुन तू इसकी व्यधा-कथा सारी।
धूप न लगे इसलिए कोई कमल-पत्र ताने जैसे,
कहती हूँ क्यों तप का साधक इसने गात किया तैसे॥
५३
घरुण, कुबेर और सुरनायक, धर्म्मराज प्रभुताशाली--
कुछ न समझ इन दिकपालों का यह मम मानवती आली
काम-नाश करने के कारण जिन्हें न मोहे सुघराई,
ऐसे शिव को किया चाहती है अपना पति सुखदायी॥
५४
अति दुर्घर्ष त्रिलोचन तक जो नहीं पहुँच पाये उस काल;
उनके 'हूँ' करते ही पीछे फिरना पड़ा जिन्हें तत्काल।
मूर्ति-हीन भी मकरध्वज के वे ही महा विलक्षण बाण,
बड़े वेग से इसके उर में प्रविशे देकर दु:ख महान॥