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समयमें हेमग्राम कहते थे और सम्भवत यही कुण्डकुन्दपुर है। इसी के पास नीलगिरि पहाड़ पर श्री एलाचार्य की चरणपादुका बनी हैं, जहाँ पर बैठकर वे तपस्या करते थे। आस पास की जनता आज भी ऐसा ही मानती है और बरसात के दिनो में उनकी पूजा के लिए वहाँ एक मेला भी प्रतिवर्ष भरता है। श्रीयुत स्व जैनधर्म भूषण ब्र॰ शीतलप्रसाद जी ने भी इसके दर्शन का जन मित्र में ऐसा ही लिखा था।

देश की तात्कालिक स्थिति—

जब हम कुरल की रचना के समय देश की तात्कालिक स्थिति पर दृष्टि डालते हैं तो ज्ञात होता है कि सारा देश उस समय ऋद्धि सिद्धि से भरपूर था। इतिहास से ज्ञात होता है कि उस समय जैनधर्म कलिङ्ग की तरह तामिल देश में भी राष्ट्रधर्म था। उसके प्रभाव से राजघरानों में भी शिक्षा और सदाचार पूर्णरूपेण विद्यमान था। अध्यात्म विद्या के पारगामी क्षत्री राजा बनने में उतनी प्रतिष्ठा व सुख नहीं मानते थे जितना कि राजर्षि बनने में, जिसके उदाहरण आचार्य समन्तभद्र (पाण्ड्यराज्य की राजधानी उरगपुर के राजपुत्र) शिलप्पदिकरम के कर्ता युवराज राजर्षि (चेर राजपुत्र) और एलाचार्य हैं। उस समय क्षत्रियगण शासक और शास्ता दोनों थे। स्वतन्त्र व धार्मिक भारत उस समय के दिव्य विचार रखता था इसकी बानगी के लिए कुरल अच्छा काम देता है।

—गोविन्दराय शास्त्री।

 

यदि पङ्कजमध्ये वससि, हे जगदम्ब तदैव।
तव वसतिर्मम मानसे, पङ्कमयेऽप्युचितैव॥
विधेर्निर्दयशापेन दृष्टिर्विफलतां गता।
अतोऽन्तर्दृष्टिलाभेन काव्यमेतद् वितन्यते॥