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परिच्छेद ७०
राजाओं के समक्ष व्यवहार

नहीं निकट अति ही रहो, और न अति ही दूर।
नृप को सेवो अग्नि सम, जो चाहो सुख पूर॥१॥
नृप चाहे जिस वस्तु को, करो न उसकी साध।
उससे वैभवप्राप्ति का, यह ही मंत्र अबाध॥२॥
इष्ट नहीं यदि भूप का, बनना कोपाधार।
तो कुदोष सब त्याग दो, कारण भ्रम दुर्बार॥३॥
नृपके जब हो पास में, करो न तब कुछ हास्य।
कानाफूसी भी नहीं, और न विकृत आस्य॥४॥
छुपकर सुनो न भूलकर, नृप की कोई बात।
और गुह्य के ज्ञान को, करो प्रयत्न न तात॥५॥
नृप की कैसी वृत्ति है, कैसा अवसर तात।
बोलो यह सब सोचकर, मोदजनक ही बात॥६॥
नृप को जिससे हर्ष हो बोलो वह ही बात।
पूछे तो भी बोल मत, कभी निरर्थक बात॥७॥
नववय या सम्बन्ध से, तुच्छ न मानो भूप।
कारण वह, नरदेव है, उससे भय हिनरूप॥८॥
न्यायी निर्मलवृत्ति के, नर से नृप जब तुष्ट।
करे न ऐसा कार्य तब, जिससे नृप हो रुष्ट॥९॥
नृप से मानघनिष्ठता, समझ उसे या मित्र।
जो नर करें कुकर्म के, मिटते बड़े विचित्र॥१०॥