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पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/२९२

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परिच्छेद ७९
मित्रता

१—जगत में ऐसी कौनसी वस्तु है जिसका प्राप्त करना इतना कठिन है जितना कि मित्रता का? और शत्रुओं से रक्षा करने के लिए मित्रता के समान अन्य कौन सा कवच है?

२—योग्य पुरुष की मित्रता बढ़ती हुई चन्द्रकला के समान है, पर मूर्ख की मित्रता घटते हुए चन्द्रमा के सदृश है।

३—सत्पुरुषों की मित्रता दिव्यग्रन्थों के स्वाध्याय के समान है। जितनी ही उनके साथ तुम्हारी घनिष्टता होती जायेगी उतने ही अधिक रहस्य तुम्हें उनके भीतर दिखाई पड़ने लगेंगे।

४—मित्रता का उद्देश्य हँसी-विनोद करना नही है, बल्कि जब कोई बहक कर कुमार्ग में जाने लगे तो उसको रोकना और उसकी भर्सना करना ही मित्रता का लक्ष्य है।

५—बार बार मिलना और सदा साथ रहना इतना आवश्यक नही है, यह तो हृदयों की एकता ही है कि जो मित्रता के सम्बन्ध को स्थिर और सुदृढ़ बनाती है।

६—हँसी-मस्करी करने वाली गोष्ठी का नाम मित्रता नहीं है, मित्रता तो वास्तव में वह प्रेम है जो हृदय को आल्हादित करता है।

७—जो मनुष्य तुम्हें बुराई से बचाता है, सुमार्ग पर चलाता है और जो संकट के समय तुम्हारा साथ देता है बस वही मित्र है।

८—देखो, उस आदमी का हाथ कि जिसके कपड़े हवा से उड़ गये है कितनी तेजी के साथ फिरसे अपने अंग को ढकने के लिए फुर्ती करता है? यही सच्चे मित्र का आदर्श है जो विपत्ति में पड़े हुए मित्र की सहायता के लिए दौड़कर आता है।

९—मित्रता का दरबार कहा पर लगता है। बस वही पर कि जहाँ दो हृदयों के बीच में अनन्य प्रेम और पूर्ण एकता है तथा दोनों मिलकर हर एक प्रकार से एक दूसरे को उच्च और उन्नत बनाने की चेष्टा करे।

१०—जिस मित्रता का हिसाब लगाया जा सकता है उसमे एक प्रकार का कगलापन होता है। वे चाहे कितने ही गर्वपूर्वक कहे कि मैं उसको इतना प्यार करता हूँ और वह मुझे इतना चाहता है।