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परिच्छेद ८०
मित्रता के लिए योग्यता की परख

बिना विचारे अन्य से, मैत्री करना
कारण करके स्यागना, भद्रों के प्रतिकूल॥१॥
बिना विवेक विचार की, मैत्री विपदारूप।
प्राणक्षय के साथ यह, मिटे असाताकूप॥२॥
कैसा कुल, कैसी प्रकृति, किन किन से सम्बन्ध?
देखो उसकी योग्यता, यही प्रीति अनुबन्ध॥३॥
जन्मा हो वर-वंश में, और जिसे अघभीति।
देकरके कुछ मूल्य भी, करलो उमसे प्रीति॥४॥
झिड़क सके जो चूफ पर, जाने शुभ आचार।
ऐसे नर की मित्रता, खोजो सर्वप्रकार॥५॥
विपदा में माना हुआ, गुण है एक अनूप।
'विपदा जैसा नापगज, नापे मित्रस्वरूप॥६॥
इसमें ही कल्याण है, हे नर तेरा आप।
मत कर मैत्री मूर्ख से, दुर्गति को जो शाप॥७॥
निरुत्साह औदास्य के, करो न कभी विचार।
और वजो के बन्धु जो, दुःख समय निस्सार॥८॥
सब सुख भोगे साथ पर, दुःख समय छलनीति।
मृत्यु समय भी दाह दे, ऐसे शठ की प्रीति॥९॥
शुद्धहदय के आर्य से, करलो मैत्री आर्य।
तज दो मैत्री भेट घर, यदि हो मित्र अनार्य॥१०॥