पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/२९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२७४]
 

 

परिच्छेद ८३
कपट-मैत्री

मित्रभाव तो शत्रु का, अहो 'निहाई' जान।
पीटेगा वह काल पा, तुमको धातु समान॥१॥
भीतर जिस के द्रोह हो, पर ऊपर अनुराग।
नारी-मनमम शीघ्र ही, होता उसे विराग॥२॥
नर में चाहे शुद्धि हो, चाहे ज्ञान प्रगाढ़।
फिर भी यह संभव नहीं, शत्रु घृणा दे काढ़॥३॥
हँसकर बोले सामने, पर भीतर है नाग।
डरो सदा उस दुष्ट से, यदि हो जीवन-राग॥४॥
हृदय नहीं हो सर्वथा, जिनका तेरे पास।
मनमोहक बातें कहें, करो न पर, विश्वास॥५॥
मित्रतुल्य मीठे बचन, बोले बारम्बर।
फिर भी पल में शत्रु तो, खुल जाता विधिवार॥६॥
झुमजावे फिर भी कभी करो न रिपु-विश्वास।
कारण धनुषविनम्रता, करे अधिक ही त्रास॥७॥
कर जोड़े रोवे अधिक, फिर भी क्या इतवार।
छुपा हुआ रिपु के निकट, संभव हो हथियार॥८॥
बाहिर मैत्री, चिन्त से करे घृणा उपहास
मीठे बन, मौका मिले, करलो अरि को दास॥९॥
कपटामित्र वैरी बने, बली न तुम भरपूर।
तो बन माया-मित्र पर, रहो सदा ही दूर॥१०॥