पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१००

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परिच्छेद) स्वर्गीयकुसुम अपने पाल नौकर रख लिया ! उस समय घर मे मेरी स्त्री थी, इम लिये मैंने बाग़ में चुन्नी को रक्खा और रात दिन मैं उसीको लिये पड़ा रहा करता! हा! ऋष्ट! इस सदमे को न सहकर वह मेरो सती स्त्री इन संसार ले लिदास होकर चल दी और उत्तीकी निर- पराध आत्मा के शाप के कारण जो जो दुःख मैंने भागे, उनका बयान मैं आगे करता हूं। "निदान, उस समय तो मुझे अपनी सती स्त्री के मरने का कुछ भी शोक न हुआ, बरन मैंने यह समझा कि एक भारी ला सिर से टल गई ! किन्तु हा कष्ट !!! "फिर तो मैंने चार-पांच बरसनक चुन्नी मानव अपने दिन काटे ! उसका फस्त एक चाचा, या न जाने क्रौल था. इम श्रीच में वह भी मर गया था उस अल'ये चुन्नी बो और कोई न था। तब मैंने समझ लिया कि बग. अब यह (चुन्नी) मुदो छोड़. कर जीते दन तक कहा जा सकती है। किन्त नहीं. वे लोग उल्लू ही नहीं, बल्कि उल्लू के इत्र हैं, . रडी या सुतिनों पर विश्वास रखते है ! खैर आने सुनी- इतना कहकर भैगसिंह थोड़ी देर के लिये ठहर गया और फिर यो कहने लगा,-"यह तो ऊपर कहो आया हूं कि मैं चावू कंबर- सिंह का रिश्तेदार था और यही कारण था कि मेरे सबर से काबू साहच की भी चुन्नी पर बड़ी कृपा रहती थी। उसी कृपा के कारण ही वावृमाहब अभीतक तुम पर भी दया रखने आते है; अन्तु !" इनना कहकर भैरोसिंह कुसुम के शयनागार में जाकर वहाले एक लटकती हुई तस्वीर उन्नार लाया और इसे कुसुम के सामन रखकर बोला," मला. बतलाओ तो सही, इस तस्वोर से मेरी शकल कुछ को मिलती है ?" कुसुम,--(गौर में उस तस्वीर और भैगसिंह की ओर बार बार देखकर ) " नही, जरा भी नहीं !" सैरोसिंह,-" पर, नहीं: यह मेरी ही जवानी की तस्वीर है : किन्तु इससे मेरा चेहरा कयों नहीं मिला, या हमें अब कहूंगा। सुनो! पांच-चार चरस के बाद जब कि मेरा कोई अपगाजीत' रहा. न चुन्नी ही का; तब उसने एक दिन मुझसे कहा कि, " प्यार! जिन्दगी का काई ठिकाना नहीं मैं नारायण रूपहा मनातीई फि - -