पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१०१

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कुसुमकुमारो। महाइसवा म्हारे सामने ही ढक-पर्द उठ जाऊं किन्तु यह संसार है, यदि औरी बदकिस्मती से ऐशान हुआ और मेरे सामने तुम्हीं को कुछ होगया, तब मुझे लंग झा पकड़बार निकाल-बाहर करेंगे और मैं तुम्हारी प्यारी होकर दर-दर भीख मांगनी फिरूंगी।' “हा! उस पिशाची सन्नरत ने ऐसे ढग से आंखों में आंसू भर- कर ये बातें कर कि मेग दिल येताय होगया और बिना कुछ सोचे- विचारे, मैंने अपनी सारी स्थावर और अस्थावर संपत्ति उसके नाम लिख दी। इस खबर को सुनकर बाबू कंवरासह ने मुझे बहुत फट- कारा, पर उस समय उनका झिड़कना मुझे ज़रा भी अच्छा नहीं लगा था। "चुन्नी किस'जात कीऔरत थी, यह तो नारायण ही जाने, पर वह अपने को गन्धर्च-नील थी बतलाती थी और अब मैं, जबकि सब हाल कहने ही का बना है तो साफ़ ही यह भी श्यों न कह है कि मैं उम्मके साथ एक थाली में बैठकर वातावो शराव-कवाब से भी पहेज नहीं रखना था ! एक दिन आधीरात के समय, चुन्नी मुझे लिए हुए तुम्हारे शयनागार-वाली आलमारी की राह सुरग में घुसी कोकि उले ने खुरम कालारा भेद बतला दिया था और उस समय उसकी ताली भी उनी के हाथ मे धी। "यद्यपि मैं पूरे नशे के आलम में था और चुन्नी ज़रा भी नशे में नहीं थी. ऐना मैंने पीछे से अनुमान किया था, पर फिर भी मैं अपने नई बहुन कुछ हामिपार समझता था: किन्तु हाय ! चुन्नी ने वेशक रंडोपने के हक को पूरे नौर से अदा किया और मैं जन्मभर के लिये मुर्दा की फेहरिपन में दाखिल होगया!!!" इतना कहते कहने मेरोसिंह की आंखों से दो चार बंद आंसू ढलक पड़े यहां न कि कुसुम और बसन्त की भी आँखें कोरी नहीं रहीं। कुलुम ने कहा,-"वस कीजिए. क्यो कि मैं अब आगे यह दर्द नाक किम्गा नही सुगना चाहती।" भैरोसिंह ने लवी सांस बैंचकर कहा,-"नहीं, अब यह किस्सा उत्तार पर है. इमलिये इसे समाप्त ही करना चाहिए ! हां, तो मुझे सुरक्षा में छोड़ करमट ले चुकाने पोढ़ियों की पर जाकर उसका दर्वाजा बंद कर लिया। थोड़ी देर तक तो मैं यह सनभाता रहा कि मह पर किसी काम से गई है, या उसने मेरे साथ दिग्गी की है।