कुसुमकुमारी। (अट्ठाईसपा - Y मरते दम तक मेरा असली भेद कोई न जानने पा!" इस पर कुसुम और सन्त ने इल भेद के गुप्त रखने की कलम खाई, तब भीरा सिह ने यों कहना प्रारम्भ किया,-"बाबू कंवरसिंह मेरे बहुत ही करीबी रिश्तेदार है, पर अब उस रिश्ते की जड़- बुनियाद हा नही रही. इसलिये उस बात का गुप्त रखना ही अच्छा हैं। उन्होंने मुझे मेरे दुरे फामा ले बहुत रोका, पर हाय ! खोटी किस्मत ने उनको भली बातें मुझे न मानने दी। "हां, बुगी सायत में चुन्नी से मेरी मुलाकात हुई ! बाबू कंवर सिंह के यहां किसी खुशी में बड़े धूमधाम से एक महफ़िल हुई था , उनीमे न जाने कहाँ से चुनी रांड़ भी आमरी थी ! उस समय वह तेरह या चौदह चरस की निहायत हो हसीन नाज़नी थो और माना भी उस समय उसका बड़ा ही आफ़त का था! "निदान आंखें लड़ते ही मैं उसके हाथों बिना दाम ही बिक गया! उस समय मेरा ऐसी बुरी हालत थी कि जिसको तस्वीर एक अनुभवी कवीश्वर ने बहुत ही सही यों बैंची है कि,- लर लचौह लोचन लोल । पैबिनहीं कछु किये खुटाई, मन बैंधि गया अमोल ॥ लुटी लाज दुहुँ दिसि की जनहीं, बजे मदन के ढोल ! रसिककिसोरा मधुरे छालन, खुलि गई हिथ की पोल ॥" "हां! फिर तो मे एना बेताब हुआ कि चुन्नी को महफ़िल में से सीधा अपने बारा में उड़ा लाया और लाकर मैंने अपनी दिली आग बुझाई ! आप लोग मुझे क्षमा करिएगा, क्योंकि मैं इस समय अपने आप में नहीं है।" इतना कहर मनिह ने अपना मुहं फेर लिया, क्योंकि उस समय उसको शाद कुछ समीज आई थीं! " शेड़ी हादेव ने उसने मुहं पोरा, तक कुसुम ने कहा,-"सुनिए,- यदि आपको कष्ट होता हो तो आप इस किस्से को यहीं पर रहने दोन्निए, मैं नहीं सुनना बाहनी और सुनिए.-अच से मैं आपको "आप" कहकर पुकासंगो, पर अपना पाप समझगी और ठीक इनीक अनुसार भाप भी मुझे अपनी लड़की समझ और अबले मुझे और इन्हें { चसत की ओर इशारा करके ) बराबर "तुम" कहकर पुकाग करें। मैरोसिंह मच्छी बात है, हा मुना फिर तो मैंने ची को
पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/९९
दिखावट