पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१०६

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परिच्छेद) स्वर्गीयमम। फल यहां पर नहीं भोगना पड़ता!" कुसुम ने पूछा,-"मुझे बड़ा अचरज इस बात का है कि इस दुर्दशा के बाद भी आपने उन पापिन का मुहं कैसे देखा और क्यों- कर इस दु:ख के साथ इतने दिन काटे ! भैरोसिंह,-"इसका भेद कुछ न पूछो! यदि मैं चाहता तो उस हरामजादी की बात की बात में भार डालता, पर स्त्रीहत्या के डर से मैंने उसका फ़ैसला उसकी किस्मत के हवाले किया और इसलिये उसीकी ड्योढ़ीदादी कबूल की कि जरा इस संसार मे रहकर उम मज को भी तो चख लं, जो मेरे-ऐसे अंध ऐयाशों को चखने पड़ते हैं और साथ ही मैं इस बात का भी नो तजा हासिल करू, कि अंडी को कौम कहां तक वफ़ादार, नैक और दिली मुहब्बत-अदा करनेवाली होती हैं। पर साथ ही इसके, इतना तुम याद रखो कि यह भैरोसिंहही का कहीर कलेजा था कि जो अपनी छाती पर पहाड़ रखकर आज तक जिन्दा रहा है !!" कुसुम,-"क्या आपने उन मास्तों को भी फिर देखा, जिन हत्यारों ने सुरग मे आपको बेकाबू करके चुन्नी के राक्षसी काम में सहायता पहुंचाई थी ?" भैरोसिंह-"सुनो, कहता हूं यह मैं अभी कह चुका हूं कि कई कारणो से मैंने उसी कम्बख़्त की ड्योढ़ीदारी करके अपने कुकर्मों का प्रायश्चित्त करना प्रारंभ किया और अपनी तबीयत को एक दस फेर कर इस बात पर अपने को मजबूर किया कि, 'बस, अब जन्मभर अपने तई छिपाकर इस हरामजादी का तमाशा देखना चाहिए ! "यद्यपि मेरी सूरत और आवाज में बहुन फ़र्क आगया था, पर यदि मैं चाहता ता बात की बात में बाबू कंवरसिह के आगे अपना सारा हाल खोलकर और आबाजी की गवाही दिलवाकर चुत्री की जियाँ उडवा देना, और अपनी मिलकियत को फिर से दखल कर लेता; पर बाबाजी की जड़ी के प्रताप से जैसे मेरं रूप, रंग और स्वर में फरक होगया था. वैसे ही शायद मेरी तबीयत भी कुछ बदल गई होगी, तब तो मेरे चित्त ने यही कबूल किया कि, ' अपने को मरा हुआ ही समझ कर जरा संसार का तमाशा देखना और किसी को बुराई के फैसले का नारायण हो के हाथ सौंप देना चाहिये। कुसुम क्षमा कीमियेगा में यहा पर एकमत चाहती