१०२ कुसुमकुमारी (भट्ठाईसवा Amm ... w. ___..-.- लाश कहकर चिता पर फेंक दिया गया हो!" कुसुम,-"आपने बहुत ही ठीक सोचा! मेरी समझ में भीयही बात आती है !" भैरोसिंह,-"यह सब देख कर उस समय मैं उससुरंग से गांगी नदी के किनारे-बाले टीले की और निकल और एक एक करके उन तीनों नालायकों को लाशों को नदी में डाल और फिर उधर का भी ताला बंद करके बाहर ही बाहर बाग मे वापस आया। उस समय रात के दो बज गए थे! "पिछली रात के घोर सन्नाटे में बाग में भाकर मैने देखा कि, मब मादमी उसी भांति बेहोशी के आलम में पड़े हुए हैं ! उस समय दुष्टा चुन्नी को मार डालना मेरे लिये कुछ भी कठिन काम न था, पर उसका न्याय यमराज के लिये छोड़कर मैंने अपनी कोठरी में आकर सुरग की ताली एक बहुत ही पोशीदो जगह में छिपा कर रख दी और खाट पर पड़ कर नींद का बहाना किया, क्योंकि उस रात को मैं मुतलक नहीं सोया था!".. . बसन्तकुमार ने कहा, "सबेरे तो बड़ा मज़ा हुआ होगा!" भैरोसिंह,-"बड़ी हो दिल्लगी हुई ! बड़े तड़के पांच बजे झगरू सोस्ताद ने बाग के फाटक पर आकर दर्वाजा खोलने के लिये खब शोर मचाना शुरू किया, लेकिन उसकी पुकार सुनता ही कौन था ! यद्यपि मेरे रहने की कोठरी बाग के सदर फाटक के पास ही थी और उसदिन फाटक की रखवाली का भार मेरे ही ऊपर था, लेकिन जागते रहने पर भी मैने न तो झगरू के शोरोगुल का कोई जवाब हो दिया और न उठकर फारक ही खोला, क्योंकि मैंने तो नींद था बेहोशी का बहाना किया शान! "खैर, एक घंटे तक योहों खूब शोरोगुल मचाकर और फिर बाग की दीवार लांधकर झगरू बाग के अन्दर आया और सभों को बेहोश देखकर उसने पहिले चुन्नी को जगाया। आध घंटे की कोशिश में चुन्नी की नोंद या बेहोशी दूर हुई और उसके होशो- हवास दुरुस्त होने पर उन दोनों की आपस में जो कुछ बातचीत हुई, उसे मैंने छिपकर सुना।--- .. मगर ने कहा,-"आज यह माजरा क्या है कि बाग के सारे
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