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पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/११७

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स्वगायकुसुम । उन्तीसवां परिच्छेद कुसुमकुमारी की इच्छा. "वियती पञ्चसहस्त्री. कियती लक्षाप्यकोटिरपि फियनी। औदार्योन्नतमनसां, रत्नचती वसुमती कियती॥" (नीति-रत्नाञ्जलिः) रोसिंह की विचित्र जीवनी ने कुसुम के सुकुमार कलेजे मेम पर बड़ा भारी असर पहुंचाया था ! उसने साथ रातभर इसी बात का घोल-मट्ठा करके यह निश्चय किया था कि, 'अब यह मारी सम्पत्ति, जो क धर्मतः भैरोसिंह ही की है और जिसे राक्षसी चुन्नी ने बहुत ही री तरह से लेलिया था, दे देनी चाहिए।' इस पर असन्तकुमार में उससे यों पूछा था.--'" तो फिर 'म्हारा गुजारा क्योंकर होगा ?" कुसुम.--"क्यों ? तुम हो कि नही ? अब तो मैं तुम्हारी विवाहता श्री हूं इस लिये अबसे मेरे बचाने कपड़े का बंदोबस्त तुमको करना पहिए।" सन्त,-"सो तो ठीक है, लेकिन अभी बिलफेल तो मेरे पास छ भी नहीं है ! मेरी हालत ऐसी बुरी है कि मैं एक दिन तुम्हे साग पत्त भी नहीं खिला सकना, और न मेरे पास चित्ता भर जमीन ही 'कि जहां पर मैं तुम्हे लेजाकर खड़ी करूंगा! तुमने तो अभी मेरा रा पूरा हाल भी नहीं सुना है !" कुसुम,-"सुनने कावक्त ही कब मिला ? और अभी मेरी जीवनी भी तो आखिरी हिस्सा बाकी है।-खर अगर कुछ न होगा नो ह तोहो सकता है कि मैं नाच-गा-कर अपने गुज़ारे लायक कुछ पैदा र लंगी, क्योंकि जब मैं रंडी कंघरपलीही हूं, नवफ़कत नाचने गाने कृपा बुराई है ?" बसन्त,-(मुस्कराकर ) "मगर साथ ही उसके, उस पेशे में मौर भी तो करना पटता है"