पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१२४

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परिच्छद) कुसुमकुमारा। इकतीसवां परिच्छेद.. View पिछला हाल। "नन्दनजन्मा मधुषः, सुरतरु-कुसुमेषु पीतमकरन्दः। देवादवनिमुपेतः, कुटजे कुटजे समीदने वृत्तिम् । (काव्यसंग्रह) PRINT रोसिंह के परलोक सिधारने के दो महीने पीछे एक दिन वसन्तकुमार ने कुसुम से उसकी जीवनी के पिछले हिस्से के हालको पूछा, जो कि भैरोसिंह के सामने प्रारंभ होकर भी रुक गया था। कसुम ने कहा,---"सुनो, प्यारे ! ठीक समय पर हम लोग यहा का करके बिहार के उन गाजा अर्थात् अपने पिता के घर पहुंचे। हाय! मैं नहीं कर सकती कि जब मैंने अपने बाप और भाई को देवा तो मेरे जी पर कैसी बीती होगी। मैने मन में सोचा कि, है देव! जिस घर की मैं बेरी हूँ, आज भाग्य के फेर से वहीं, अपनही सगे साई की महफ़िल में, नाचने भाई हूं ! हा. पिता और भाई का देखने ही मैं एक बेर चक्कर खाकर गिर पड़ी और दग्तक बेमधी पड़ी रही। राजा साहब के वैद्यों ने बड़ी दौड़-धूप-कर मेरी बहाशा दूर की और मुझे मृगी का रोग बतलाया! निदान, फिर किसी दव से एक दिन महल में जाकर अपनी माता और छोटी बहन को भी मैंने देखा, और उन पर नजर पडते हो वहां भी मेरी वही दशा हुई. जो बाहर बाप और भाई के देखन पर हुई थी। किन्तु एक उस दुष्ट जगन्नाथी पडे के देखने की मझे लालसा बनी ही रही, क्योंकि उसं मैने वहां न देखा । मैं नहीं कर मकता कि वह वहां आया था, या नहीं, या मैंने उसे चीन्हा ही नही! एह भी हो सकता है कि शायद वह आया हो. और मुझे देख कर उसने मेरे सामने आने से अपने तई बचाया हो !" बसन्त,-"तुम्हें देवकर तुम्हारे माता-पिता का चित्त मी कछ डामाडोल हुआ था ?" कुमुम यवश्य कुछ न कुछ हुआ ही हागा क्यााक खून का ७७