पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१२५

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म्वगायकुसुम । (इकवासपा रिश्ता अपना कछ असर दिखलाए बिना नहीं रहता, पर उस समय मारे दुःस्त्र के मैं अपने आप मेही न थी कि इन बातों पर ध्यान देती। हां! उस समय मैंने अपनी जान दे देनी चाही, पर कछ न होसका! चुन्नी पर उसी दिन से और भी मुझे गुस्सा चढ़ आया, और फिर तब से मैं उसकी ओर कभी मुहब्बत की नज़र से नहीं देखती थी। यदि मैं चाहती तो राजा-साहब के आगे अपने तई प्रगट कर और उस पुर्जे तथा यत्र को दिखला कर बड़ा बखेड़ा खड़ा करती, पर यह सब करना मैंने व्यर्थ समझा, क्योंकि समाज और लोकलाज के डर से मुझे वे लोग ग्रहण तो करते ही नहीं, तो फिर मैं क्यो अपने लिए अपने मां-बाप का सिरनीचा करके संसार में उनका मान घटाती! "हाय ! कई दिनों तक उसी नकली मगीरोग में अपने को मुर्दे सरीखी बनाए हुई मैं उनकी पाहुनी रही और मैने ऐसादंग रचा कि वहां मुझे एक दिन भी महफ़िल में पेशवाज पहिरकर खड़े न होना "भाई के ब्याह होने पर जन्मभर के लिये एक नजर मैंने अपनी भीजाई को भी देख लिया। फिर बिदाई पाकर चुन्नी के साथ मैं यहां लौट आई। उस घटना से मेरे चित्त ने ऐसा पलटा खाया कि जिसने मेरी पहिली प्रतिज्ञा को और भी दृढ़ कर दिया। आहा ! धन्य है जगदीश्वर, कि उसकी दया से मेने अपना प्रण मजे में निवाहा और अपने मन के माफ़िक ही तुमको पाया।" यसन्तकुमार ने मुस्कराकर कहा.-"इसका क्या मुबूत है कि मै तुम्हारे मन के माफ़िक हूं?" कसम ने हँसकर कहा,---इसका यही सबूत है कि रंडी की पर्वरिश मे रहकर और चुन्नी सरीखो चालबाज रंडा की तालीम पाकर मी मैने तुम्हारे चरणों में अपना सभी कछ-यानी, तन, मन और धन-अर्पण कर दिया है।" यह सुनकर बसन्तकुमार शरमा गया और बड़ी आजिजोसे कहने लगा,-" प्यारी, तुम बार बार रंडी-रंडी न किया करो. क्योकि पेसी बातों से मुसे दुख होता है