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पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१३७

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स्थगायकुसुम । (चौतीसवा चौंतीसवां परिच्छेद कुसुम का नाच. " विभ्रमैर्विश्ववधस्त्वं, विद्ययाप्यनवद्यया । केनापि हेतुना मन्ये, प्राप्ता विद्याधरी,क्षितिम् ॥ (काव्यादर्श.) X सन्तकुमार की बारात बिहार के में पहुंच गई है।

  • ब बारात में धूमधाम इतनी है कि जिसका कोई ठौर

ठिकाना नहीं ! आज ही रात को बसन्तकुमार की शादी होनेवाली है। बड़े ठाठ के साथ महफ़िल सजी गई है। नाचने के लिये कई नामी रंडियां पटने, बनारस और लखनऊ से बुलाई गई हैं;पर आरे से कोई भी नहीं आई है ! यह क्यों ? इसका जयाब तो कुसुम ही देसकती है। एक बड़े भारी बाग में खीमा पड़ा हुआ है. उसी में बारात ठहरी हुई है और महफिल का इन्तज़ाम भी वहीं शामियाने के नीचे हुआ है। एक छोटे से, मगर सूफ़ियाने खीमे के अन्दर कुसुमकुमारो अपने हाथ से बसन्तकुमार का शृङ्गार कर रही है, क्योंकि बारात निक- लने में अब थोड़ी ही देर है। कुसुमकुमारी ने मुस्कुराकर कहा," प्यारे ! आज तो मैं भी पेशवाज पहिरकर नाचंगी!" बसन्त,-ताज्जुब से) " यह क्यों ?" कुसुम,-" इस लिये कि आज मेरे लिये बड़ो भारो खुशी का दिन है, सो यदि आज ही मैं अपने जी का हौसला न पूरा करूंगी तो कब करूंगी !" असन्त,-"यह तरंग क्यों सूझी?" कुसुम,-"इसलिये कि फिर ऐसा मौका कब हाथ आधेगा? यस जन्मभर के लिये फकत आज अपने दिल की यह भी हवस निकाल दूं .