पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१६१

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स्वर्गीयकुसम । (उनबालीसथा उनचालीसवां परिच्छेद.। AGL भयम्बक. म देवे देवत्वं कपटपटवस्ताएसजना, जनो मिथ्यावादी विरलतरवृष्टिर्जलधरः। प्रसङ्गो नीचानामवनिपतयो दुष्टमतयो. जना भ्रष्टा नष्टा अहह कलिकालः प्रभवति !" (सुभाषिते.) मानसी जलले में एकदिन कुसम ने अपने कुल बेशकीमत, गहने पहरा कर नई दुलहिन अर्थात् अपनी वहिन गुलाब देई का शृङ्गार किया और उसे अपने प्रानप्यारे असन्त ps के बगल में बैठा कर बड़े प्रेम से उन दोनों का गाल चूम लिया। इस पर बसन्त ने हंसकर यों कहा, "क्यों! अथतो तुम्हारी देली मुगद पूरी हुई न?" कुसुम ने मुस्कुराकर कहा, जी हां. आपकी इनायत !" असन्त ने कहा,-"तो फिर अग्र आज से हम तुम दो हुए न?" कुसुम ने कहा, "नहीं, बल्कि आज हम-तीनी मिलकर एक हुए!" एक दिन कुसुमकुमारी जय तीसरे पहर सोकर उठी और मंह- हाथ धोकर अपने बाग़ में चहलकदमी करने लगी थी, उस समय वसन्तकुमार ने उसके पास पहुंच कर यों कहा था,-" तुम जरा कमरे में चलो, क्योंकि कोई बहुत ज़रूरी पोशीदा बात कहनी है।" यह सुन और मुस्कुराकर कुसुमकुमारी ने वसन्तकुमार का हाथ अपने हाथ में लेलिया और कहा,-"क्यों, खैरियत तो है, मेरी अहिन के साथ कुछ लड़-झगड़ तो नहीं आए हो?" असन्त ने कहा,-"नहीं, यह बात नहीं है। इस समय मैं कुछ और ही बात कहा चाहता हूं और वह यह है कि तुम्हें खोजता हुआ वह जगन्नाथी पण्डा भ्यम्बक यहां आपहुंचा है। तुमको खोजता कुमाघह मकान पर गया था पर जब मैने उसकी बातो से उसे पहिचामा, तप से मपने साथ यहा इसरिये ले माया कि जिसमें