पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१९२

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परिच्छेद) कुसुमकुमारा। ने उस सन्दर लेकिन फीक खिले लेकिन कुम्हिलाए; सरस, लेकिन सूखे चेहरे को देखना ही रह गया ! उसका मन कुसम के सोमनी दुपट्टे. नन्ही सी नथ. निजली से कर्णफूल, भनझनाते हुए छड़े, चन्द्रवन् मुखचन्द्रिका, और अमृतमय मंद मुसकान में चक्कर खाने लगा! छिन भर के अनन्तर, कुसुम को चुपचाप गड़ी देखकर उसने कहा,-'कहो न ! क्या हुआ है ?" कुसुम.--" कुछ तो नहीं !" बसंत,-" कुछ नहीं ?" कुसुम,-" हो ! कुछ भी नहीं।" क सम स्थिर दृष्टि से क छ देर तक वसन्त का मुख देखती रह गई ! फिर करवट लेकर धीरे से उसने एक लंबी सांस ली, किन्तु उम्मकी आहट बसन्त को न लगी ! कसम ने थोड़ी देर तक करवट न फेगी. उतनी ही देर में उसको पाखो से दो-चार बंद आंसू पलग. पर गिर पड़े, पर, 'प्याग कहीं देख न ले, यह मोचकर बह तुरन्त अपना मन मार कर उठ बैठो! फिर उसने दासी से हुक्का लाने के लिए कहा और आश नहीं नन्हीं कोमल अंगुलियों से बीन बजाने लगी और ईमन का सहारा छेडकर माली....प्यारे ! जग ठेका ती दो!" ___यह नुन असन्त ने पायां लेलियाहाय ! उस बेचारे की यह कमा खबर थी कि आज क सम के सुकमार कलेजे में कैसा ज्वार- भाठा मचा हुआ है! उस समय वह कोकिल्ल-सरीखे कंठ से गाने लगी,- (गग ईमन) गख नैनों के तारे, प्रान प्यारे, आरे, आरे ! टेक।। तन मन प्रान दिया जेहि, सो, यो, प्रेम नेम हिय हारे॥ विधि दै, बाद माघ क्यों पूरै, रो नैन सितारे । आमहीन मत दीन किल अति, मान जान पगधारे ॥ जदपि समागम मरत-सही. सोनाहि कियो भपारे । ताक मुख सोनऊ सुलोमन मुदलहे अपारे । कौन मेरो. मैं काकी हो पातम मोहि विसारे । रसिक फिसारा प्रम फास ते ब प्रान ममिवारे।