परिच्छेद) कुसुमकुमार्ग। १५ उन्चारपां परिच्छेद, निराशा. • आशा हि जीवलोकस्य, जीवन जगतीनले। स्ना नास्ति र्याद कि तस्य, जीवन जगतीतले ॥” विवेकचूडामणी) ई दुनियां नए जीव अमेरिकावालों ने एक ऐसी युक्ति निकाली है कि जिसमें काटेवाले वृक्षों के काटे दूर हो जाने हैं: अर्थात वहकि भूनिया-विशारद न्दोग केटीले "पौधों को कला एसी साद देकर लगाते हैं कि फिर उन पड़ों में कांटे नहीं निकलने । इससे यह बात निश्चय है कि काटा भी दूर होसकता है। तो फिर कुसुम की इन चिट्ठी. या विषपान की घटना से यदि कटीली गुलाब के स्वभावरूपाध संकोटीलापन एक दम से दुर होजाय तो इसमें अचरजनी कोई बात नहीं है। जिस समय बसन्तकुमार की अब-तब की हालत हारही श्री. उस समय उपकी प्यारी कुसुम की कमा दशा हुई थी, इसे हमारे पाठकलोग शायद अभी न भूले होगे! किन्तु कुसुम की उस दशा सं आज बत्त की दशा ऋड़ार दर्जे खराब होरही थी वह पागलों की तरह दौड़ा हुआ नाम में आया, और वैद्यजी से,--'कुसुम के बचने की कोई आशा नहीं है।' यह सुनकर कटे-पेड की तरह जमीन में धड़ाम से गिर कर बेहोश होगया! कहाती एक कुस्तुम ही के लिये इतनी नरद्द देथी, कहां अब बसन्त के लिये भी दौड़-धूप होने लगी। वैद्मजा के अनेक यत्न करने पर बसन्त को होश तो हुना,-पर यह बाई के झोंक में कमी अर बरं वकता. कमी उठ कर कुए में गिरने दौड़ता, कशी पत्थर पर सिर पटवाना चाहता, कभी छुरी लेकर गले या कलेजे में मारा चाहना, या कभी दूसरो के मारने के लिये दाइता था; परन्तु कई लोग उम्मको उम्दशादी में मुम्तैद थे, इसलिये घह कोई पागलपने के काम नहीं करने पाता था। बाग मे आकर गुलाय ने अानुम और बसन्त की दुर्दशा देनो मोर मान दा को इस सारा दिपनीजह समझ पर उसने अपने
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