पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/२०६

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परिच्छेद) कुसुमकुमारी। पर पचासवां परिच्छेद, एक प्रश्न "अमारे खलु संसारे. सार यत्तद्मवीम्यहम् । संयोग एच नित्यं स्यान्न वियोगः कदाचन ॥" (साहित्यमञ्जरी) हाकवि कालिदास ने कहा है कि.-"भिज्ञचिहि लोकः”-अत्,-'सभी लोगों की रुचि एकमी नहीं होती। ठीक है, इसे हम भी मानते हैं और इसी

  • लिये हम यहां पर कुछ कहा चाहते हैं।

हमारे पाठको में भी बहुतेरे लोग संयोगान्त के, और कुछ लोग वियोगान्त के अनुरागीनी, इमलिये दानी प्रकार की हनिवाले प्रसन्न हो. यह समझ कर यहां पर हम पहिले वियोगान्त-चि. वालों से यह कहते हैं कि.---"स, अब आपलोग इस उपन्यास को यही नक गढ़कर रख दीजिए और समझ लीजिए कि.- कुसुम मरगई, पागल बसन्त भीमरगया और उन दोनों के मरने पर कम्त गुलार ने मो अपनी जान देकर अपने पाप, अर्थात सपनीमध और पनि त्या का प्रायश्चित्त काडाला' फिर पीछ कमाया? हो. जो लावाग्रिमों की बेपछ दोस्त का होना है। अर्थान्, 'मास के टुकड़े पर नीलाम की भांति अगेनी-परोसी, अपने-पराए, वारिम वारिम आदि रोगोंगे मनमानी लूट-खसोट मचाई पर जैसे चीलों को मार भगाकर पक्षियज गिद्ध अपना ही अधिकार जमाता है की गव लटेरों को दूर करके लाचारिस सम्पति पर राजा ने अपना कवा किया और यो देखते-देखते एक नई फुलमारी. जिनमे बसन्त की आमद से कुसुम की कली असी चिली भी नहीं थी, शोर गुलाब की कली चटकी मीनदी श्री कि एकापस आकाश में अकाल के उल्कापान से वह जल-भुन कर बाकरन्यास होगई '" यो साहय चियं साल के प्रेमियों अब नोआप ग्युश हुएन ? नितु जग आप हमार सामन तो तशरीफ शरोफ्लाइप फ्लोषि