स्वगायकुसुम । (सिरपनषा Pre- Easiksakakaka NRNET तिरपनवां परिच्छेद
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याना "मनोऽनुकूला सुखदप्रभावा, स्वास्थ्यप्रदा वुद्धिविवेकदात्री। विनोदपूर्णा नयनाभिरामा, यात्रार्थदात्री जयकारिणी च॥" (वैद्यमहोत्सचे) , बतलाइए, पाठक ! ऐसी अवस्था में बेचारी गुलाब क्या करती ? बसन्तकुमार तो इस समय खासा बसन्त बन रहा था और कुसुम की यह दशा थी; तो अब बेचारी गुलाब क्या करती, और इस बारे में किस से सलाह लेती ? एक तो गुलाब कुसुम की रहस्यमयी जीवनी का तत्व जानने के लिये योंहीं घबरा रही थो, दूसरे अनूपसिंह के पत्र ने तो उसे और भी हैरान कर दिया था ! अब न तो गुलाब यह हाल ही कुसुम से कह सकती थी, और न उस प्यादे ही को बिना. समझे-बूझे बिदा कर सकती थी! सोचिए ती, पाठक! यह कैसा नाजुक मामला था! निदान, पहिले ती गुलाब ने वैद्यजो के साथ-उन्हें कोई गुप्त भेद न बतलाकर-इस बात की सलाह की कि,-- यदि कुसुम और बसन्त हवा बदलने के लिये बाहर ले जाए जाय तो कैसा? इसपर पाहिले तो वैद्यजी ने मना किया. पर जब गुलाब ने बहुत हठ किया और यह कहा कि,-' आपको भी साथ चलना होगा और पूरा मेहनताना मिलेगा; ' तब तो वैद्यजी राजी होगए ! फिर गुलाब ने अकेले मे बसन्तकुमार को बुलाकर उसे अनूपसिंह की चिट्ठी दिखलाई और यह पूछा कि, " अब क्या करना चाहिए ?" बड़े भाग्य की बात थी कि आज बसन्तकुमार कुछ होश-हवास में था; उसपर यह गौर भी आश्चर्य की बात हुई कि उस पत्र ने उसके साथ धन्वन्तरि का काम किया. जिसके पढते ही एक दम से रमका सारा पागलपन जाता रहा और उसने गुलाम का