पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/२१३

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२०४ स्वर्गायकुसुम। ( चाबनवा UNvMinu... - चौवनवां परिच्छेद. R A - - - - - - विचित्रलीला. "अहो महञ्चित्रमिदं, यदाचरितमद्धतम् । स्मार स्मारं तदेवाहं, हृष्यामि च पुनः पुनः ॥” (महाभारते ) जब बिहार पहुंचने में एक दिन बाकी रह गया, तब गुलाबदेई ने चालाकी से कुसुम की सेज पर अनूपसिंह-बाला वह पत्र, जिसका हाल ऊपर लिखा जाचुका है, डाल G) निया और आप आड में बैठ कर देखने लगी कि, 'कुसुम इसे पढ़कर क्या रंग लाती है ! ' गुलाब की इस चालाकी में बसन्त भी शामिल था और वह भी गुलाब के साथ माड़ में बैठकर कुसुम के चेहरे का उतार-चढ़ाव देख रहा था! आखिर, कुसुम की नज़र उस चिट्ठी पर पड़ गई और उसने उस खत को गौर से दो-तीन बेर पढ़ा ! पढ़कर उसने एक लंबी सांस ली और मन ही मन यह समझ लिया कि, 'इसी लिये यह सफ़र कीगई है और बीमार समझ कर आज तक मुझसे यह बात छिपाई गई है!' कुसुम इस बारे में कुछ ओर सोच-बिचार भारती, पर चट बसन्त और गुलाबदेई,-ये दोनो उसके सामने पहुंच गए। दोनों के हाथ में एक एक भयानक छुरा था, और दोनो ही ने अपने अपने कलेजे पर उसकी नोक रखली थी! यह विचित्र तमाशा देख कर कुसुम बहुत ही घबरा गई और चक्रपकाकर वह उठा हो चाहती थी कि गुलाब ने कहा, "बस, जीजी! अगर अपनी जगह से तुम ज़रा भी हिली तो यह छुरा हम- दानों के कलेजे के पार ही पहुंच जायगा!" कुसुम,-"वहिन, गुलाबदई ! यह कैसा स्वांग है ? मैंने क्या मपराध किया है ?" र ने कहा सुना प्यारी जा कुछ गुलाब कहे