२१४ (सत्तावमा गुलाब को बहुन झिड़कती कि, 'बचों को साथ बैठा कर क्यों नहीं खिलाती !' पर गुलान यह बात न मानती और यह कहती कि.-"जीजी ! मुझे यह सब नही अच्छा लगता!" घोही सष बच्चे रात-दिन कसम के गले के हार बने रहते ! फोई अपनी मां (गुलाब) को न पूछते और अपनी सच्चो चाहने वाली मां कुसम के पास ही रात दिन रहते थे। सब उसीके साथ खाते, उसीके साथ खेलते, उसीके साथ रात को सोते, उसीको 'मां-मां' कह कर पुकारते और यही जानते कि, मेरी सच्ची मां कसम हम भी यही कहेंगे कि गुलाब ने केवल बच्चे जनने की पीर ही भर सही, पर बच्चों के यथार्थ सुख को यदि किसीने पाया, तो केवल कुसुम ही ने! धन्य, कुसुम ! तू सचमुच " स्वर्गीय-कुसुम " है, देवी है और पूजी जाने योग्य है! प्रभो! संसार में ऐसे ही सखी परिवार हों, तो अच्छा हो! "मङ्गलं मङ्गलानां च, कलवाणां च मङ्गलम् । पुत्राणां मङ्गलं भूया- इम्पतीनाञ्च मङ्गलम् "
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