से उन्होने जो कुछ किया है, वह सरासर आपकी भलाई ही के
खयाल से।”
कुसुम, (तड़पकर) " मगर मैं तो मरी जाती हूं!" डाक्टर,-" नहीं, बल्कि अपने प्यारे के मारने का मन्सूवा कररही है।" यह सुनते ही कुसुम मारे गुस्से के ताव-पेंच खाकर उठ खड़ी हुई। उस समय वह इतनी थरथर कांप रही थी कि तुरत ही जमीन में गिरकर बेहोश होगई। डाक्टर यही तो चाहता था, सो चट उसने कोई दवा सुंघाकर उसे और भी बेहोश कर दिया और फिर कोई अर्क पिलाकर उसे पलंग पर जा लिटाया। फिर डाक्टर के इशारे से कुसुम के सब नौकर-चाकर अपने-अपने काम पर मुस्तैद होरहे और डाक्टर वहांसे वाग़ में आकर घायल और वेहोश बसंतकुमार के पलंग के पास जा बैठा ! भैरों सिंह कुसुम के पास से आकर वहांपर पहिले ही से मौजूद था, लेकिन डाक्टर के आजाने पर वह कुसुम के पास चलागया था। पहिले परिच्छेद के अन्त में हम एक उदासीन बाबाजी की 'भ्रू पद' का हाल लिख आए है। अस्तु, यहांपर पाठकों को यह समझना चाहिए कि पांचवें परिच्छेद के अन्त में जिस करुणा- भरी आवाज ने कुसुमकुमारी का ध्यान अपनी ओर खैचा था, वह आवाज़ भी उन्हीं भू पद-वाले बावाजी ही की थी। आज वहीं करुणा-भरी आवाज़ा फिर सुनाई देती है, जिसे तन्द्रावस्था में पड़ी हुई कुसुम कुछ-कुछ सुन रही है ! वह आवाज़ कौन सी है ? इसे तो हम नीचे लिख देते हैं, पर ये उदासीन बाबाजी कौन हैं ? यह चात हम फिर कहेंगे।
" रात-दिना आपुनो परायो ही करत रहै,
__रोजी-रोजगार में रहै यों चित्त लाय है।
दान दया सत्य तप आदि को कलाम नाहि,
पापपंकपूरित विसेष पुलकाय है ॥
खूबी खूब खुसी की मनावै भरमावै नित्त.
खबरिन लावै अहो काल कबै आयहै।
दुनियां अजब अलबेली है सराय भाय,
कहीं खुसी होय, कहीं होय हाय-हाय है।"