“ मौनान्मुकः प्रवचनपटुर्वानुलो जल्पको वा,
घृष्ट पाशर्वे वसति च तदा दूरतस्त्वप्रगल्भः ।
क्षान्त्या भीर्यदिन सहते प्रायशो नाभिजातः,
सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः॥"
(हितोपदेशे)
भैरो सिंह ने उस झाड़ी में घुसकर चांदनी के हलके उजाले में क्या देखा कि बसन्तकुमार लोहू-लोहन हो मुर्दे की हालत में पड़ा सिसकरहा है ! यह देखते ही, होनी अच्छी थी, इसलिये,-भैरोंसिह को अच्छी धुन सूझी! सो, चट उसने सिद्धनाथजी के मन्दिर से कई पुजारी-ब्राह्मणों को पुकारा और उन्हींसे एक खाट और शतरंजी ले उस पर कई आदमियों की सहायता से धीरे से बसन्तकुमार को सुला दिया। फिर उन आदमियों को बसन्त की चौकसी के लिये छोड़, आप तेजी के साथ दौड़ा हुआ बाबू कुंवरसिंह के डाक्टर के पास पहुंचा; पर वे डेरे पर न थे और बाबूसाहब की रात्रिवाली कचहरी में थे। तव भैरोंसिह वहीं पहुंचा और घबराहट से उसने डाक्टरसाहव से सारा हाल कह सुनाया।
उस समय बाबूकुंवरसिंह का यह हाल था कि वे अपनी सारी प्रजा का-चाहे वे गरीब हों, या अमीर-पुत्र के समान पालन करते और विपन् पड़ने पर हर तरह से पूरी सहायता भी करते थे। उन्हें कुसुम और बसन्त के प्यार का हाल भरपूर मालूम होचुका था और वे कुसुम के मिज़ाज की भी पूरी परख रखते थे; इसलिये उन्होंने डाक्टर के साथ अपने और भी कई आदमी कर दिए और इस बात की पूरी ताकीद कर दी कि, 'जब तक रोगी की दशा कुछ सुधार पर न आजाय,याकुसुम भी इस सदमे की धड़कन के रोकने में समर्थ न हो ले, तब तक वह (कुसम) हर्गिज़ रोगी के सामने न लाई जाय . ने भी इस बात को पसन्द किया