पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

परिच्छद) कुसुमकुमारो बसन्त,-" मैं तो किसोकी पर्वा न करके खूब धूमधाम के साथ तुमसे ब्याह किया चाहता था, पर जब कि तुम्हे यह बात नहीं रुचती तो-खैर, चुपचाप ही शादी करली जाय।" कुसुम.-" हां, प्यारे ! बस, ऐसाही होना चाहिए, क्योकि यद्यपि प्रेम के आगे विवाह का बन्धन कोई चीज़ नहीं है, मगर नहीं प्रेम के बन्धन मे परम्पर मन के बंध जाने पर भी विवाह के बन्धन मे तन को भी आपस में बाँध लेना चाहिए, जिसमे धर्म से पतित न होना पड़े।" बसन्त,-"आह, प्यारी तुम्हें और तुम्हारे इस पवित्र धर्मभाव को धन्य कहना चाहिए !" कुसुम,-"खैर, नो अब यह बताओ कि ब्याह क्यों कर हो और कब हो?" बसन्त,-"सुनो बताता हू-देखो, प्याग, हिन्दू शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाह लिखे हैं।" कुसुम,-" ऐसा! लो वे कौन कौन से हैं ? " बसत,-"सुनो. उनके नाम ये हैं-ब्राह्म, दैव आर्य, प्राजापत्य, आसुर, राक्षस, पेशाच और गान्धर्व !!!" (३) कुसुम,-"इनमें से गान्धर्व विवाह का हाल मुझे मालूम है, इसलिये मैं समझती हूं कि तुम्हारा इरादा इन विवाहों में से गान्धर्व विवाह के करने का है ! " बसन्त,-'वाह प्यानी, तुम धन्य हो! खूब समझी!" कुसुम,-"तो, बस, अब झटपट गान्धर्व विवाह होजाना चाहिपा" बसन्त,-"जरूर होजाना चाहिए और अभी होजाना चाहिए; पोंकि इसमें समय या और किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं होती और कुमार-कुमारी के मिलाप होने पर परस्पर इतना कह देने सेही यह विवाह, मम्पूर्ण होजाता है कि 'तुम मेरी भार्या हुई, और तुम मेरे पति हुए ' " (२) यह सुनकर कुसुमकुमारी बहुत ही प्रसन्न हुई और फड़क कर बोली कि,-"वाह, वाहनच तो प्यारे! हम-तुम बहुत सस्तेटे!" (2 ब्राह्मो दैवस्तथैवार्पः प्राजाप-यस्तथासुरः। गान्धवों राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमी मनः ।। (२)त्व मे भार्या त्वं मे पतिरिति गान्धर्वः । iam asamunwanea m -