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कोविद-कीर्तन

सन् १९१३ ईसवी मे गवर्नमेट ने आपको "दीवान बहादुर" की पदवी से विभूषित किया।

चतुर्वेदीजी पर वर्तमान महाराज-राना साहब का पूर्ण विश्वास था। वे उनकी योग्यता, सुप्रबन्ध कौशल और नीति-नैपुण्य पर बहुत प्रसन्न रहे। इसी कारण राज्य का सारा भार उन्हीं पर उन्होंने छोड़कर विलायत की सैर की। झालावाड़ मे पण्डित परमानन्दजी का वेतन आठ-नौ सौ रुपये मासिक तक पहुँच गया था।

पण्डित परमानन्दजी बड़े विद्या-प्रेमी थे। संस्कृत आप बहुत ही अच्छी जानते थे। बँगला, उर्दू, फ़ारसी और अरबी मे भी आपकी गति थी। फ्रेञ्च, लैटिन और जर्मन भाषाये भी आप कुछ-कुछ जानते थे। विद्याव्यासङ्ग और पुस्तक-प्रणयन मे लगे हुए लोगों के आप अकारण-बन्धु थे। इस नोट के लेखक पर बिना पूर्व-परिचय और प्रत्यक्ष जान-पहचान के, आपकी बड़ी ही कृपा थी। आपके पत्रों का जो संग्रह हमारे पास है उसके प्रत्येक पत्र से आपके विद्या-प्रेम, औदार्य और ज्ञान-पिपासा की धारा सी बहती है। 'सरस्वती' को आप ध्यान से पढ़ते थे। कभी-कभी उसमें प्रकाशित बातो की समालोचना भी लिख भेजते थे। आप अपनी ३१ अगस्त १९०७ की चिट्ठी मे लिखते हैं---

"शाकटायन की पुस्तक देखने से पाया जाता है कि इसके कर्ता शाकटायन पाणिनि और कात्यायन के बाद हुए। जिन