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आचार्य सुमङ्गल


काल तक जीवित न रहेंगे। उसकी इस भविष्यद्वाणी से सुमङ्गल के माता-पिता के हृदयों पर बड़ी चोट लगी। उन्होंने निश्चय कर लिया कि बालक सुमङ्गल का प्रवेश बौद्ध-मठ मे करा ही देना चाहिए। कदाचित् इस पुण्यकार्य से वे दीर्घजीवी हो सकें। बालक सुमङ्गल साधु बनने को तैयार न थे; परन्तु, अन्त मे, उन्हे अपने माता-पिता की आज्ञा माननी ही पड़ी।

सुमङ्गल के गुरु का नाम था अनुगामी रेवतक थीरो। साधु-दीक्षा लेने पर सुमङ्गल का पूरा नाम हुआ हिक्कादुआ श्रीसुमङ्गल। मठ मे प्रवेश करते ही उन्होंने अपने गुरु से पाली भाषा पढ़ना प्रारम्भ किया। जो अवकाश मिलता उसमे वे अपने गुरु के कामों की देख-भाल भी करते। बारह ही वर्ष की उम्र मे वे पाली अच्छी तरह लिखने-पढ़ने लगे। तब उन्होने संस्कृत पढ़ना चाहा। उस समय, लङ्का मे, पाली की कुछ चर्चा भी थी, क्योंकि लङ्का-निवासी अधिकतर बौद्ध हैं और बौद्ध-धर्म का पाली से घनिष्ठ सम्बन्ध है। परन्तु संस्कृत और संस्कृतज्ञो का तो वहाँ बहुत ही टोटा था।

सौभाग्यवश, उस समय, काशिनाथ नाम के एक संस्कृत- विद्वान् दक्षिणी भारत से लङ्का के कोलम्बो नगर मे आये। सुमङ्गल उनके पास सबसे पहले पहुँचे। उनके शिष्यों मे सुमङ्गल ही सबसे अधिक तेज़ भी थे। संस्कृत पढ़ने मे सुमङ्गल को मानसिक परिश्रम तो करना ही पड़ता था; परन्तु उन्हे तदर्थ जो शारीरिक परिश्रम करना पड़ता था उस पर विचार