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विष्णु शास्त्री चिपलूनकर


तादृश आवश्यकता न थी। दूसरो के धार्मिक विचारों पर आघात न करके, और दूसरो को मर्म-भेदी वाक्य न कहकर भी, मनुष्य अपने हृद्गत भावों को प्रकट कर सकता है और अपने को अच्छा लेखक सिद्ध कर सकता है। इतिहास पर लिखते-लिखते विष्णु शास्त्री ने मेकाले और मिल इत्यादि इतिहासकारो को अनेक दुर्वचन कहे और अँगरेज़ी भाषा पर लिखते-लिखते, स्वदेशियों के साथ अँगरेज़ों के उद्धत व्यवहार पर तथा पादरी लोगो के द्वारा अनेक युक्तियों से क्रिश्चियन धर्म के प्रचार पर भी, उन्होने बड़ी ही तीक्ष्ण आलोचना की। यह बात क्रिश्चियन धर्मोपदेशकों और गवर्नमेट के अधिकारियों को अच्छी न लगी और ऐसा भासित होने लगा कि शास्त्रीजी पर राजद्रोह का आरोप लगाया जायगा। परन्तु यह न हुआ। हुआ यह कि थोड़े ही समय मे शास्त्रीजी की बदली पूने से सैकडों कोस दूर रत्नागिरी की हो गई। यह आयोजना इस निमित्त शायद की गई कि रत्नागिरी में छापेखाने इत्यादि का प्रबन्ध न होने के कारण "निबन्धमाला" का निकलना बन्द हो जाय; परन्तु इसमे शास्त्रीजी के विपक्षियों को कृतकार्यता न हुई।

बाल्यावस्था से विष्णु शास्त्री पूने ही मे रहे। वह नगर उन्हे अतिशय प्रिय था। उसे छोड़कर वे रत्नागिरी जाना न चाहते थे परन्तु अपने पिता कृष्ण शास्त्री के आज्ञानुसार उन्होंने वहाँ के लिए प्रस्थान किया। वहाँ से भी वे अपनी प्रिय