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कोविद-कीर्तन


"निबन्धमाला" को निकालते ही गये। वे उसे लिखते रत्ना- गिरी में और छपाते पूने मे थे। इस बदली के कारण उनका चित्त और भी अधिक कलुषित हो गया और पहले से भी विशेष तीव्र लेख 'निबन्धमाला" मे निकलने लगे। जिस वर्ष उनकी बदली रत्नागिरी को हुई उसी वर्ष अर्थात् १८७८ मे, उन पर एक और ईश्वरीय कोप हुआ। उनके पिता का शरीरान्त हो गया। इस दुर्घटना के कारण उनको बहुत खेद हुआ और साथ ही गृहस्थाश्रम का भार भी उन पर आ पड़ा। इन्हीं कई कारणों से सेवा-वृत्ति से वे पहले से भी अधिक घृणा करने लगे और अपनी रजत-श्रृङ्खला को तोड़कर स्वतन्त्र होने का विचार करले लगे। ऐसा न करने से देशोपकार करने और मातृभाषारूपी मन्दिर के ऊपर अपनी यश:पताका उड़ाने का अवसर आना उन्होने दुर्घट समझा। अतएव पिता के परलोकवासी होने के अनन्तर वे बहुत दिन रत्नागिरी में नहीं रहे। पहले उन्होंने छुट्टी ली और पीछे से शीघ्र ही सेवा-वृत्ति को तिलाब्जलि दे दी।

रत्नागिरी के स्कूल मे विष्णु शास्त्री को १००), मासिक वेतन मिलता था। इस वेतन को तृणवत् समझकर उन्होने सेवा-वृत्ति पर लत्ता-प्रहार किया। इस बात को सुनकर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि विष्णु शास्त्री धनी न थे। न उनके यहाँ कोई व्यापार होता था; न जीविका का दूसरा और कोई मार्ग था। अतएव १००) रुपये की नौकरी छोड़ना