पृष्ठ:कोविद-कीर्तन.djvu/९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८६
कोविद-कीर्तन

(१) भाल लिखी लिपि को सक टार

(२) सार यहै उपकार तजै ना

(३) उन्नति यों करिए कविता की

(४) बार करो जिन बार बराबर

(५) अब तो सबको गुरुदेव रुपैया

आदि समस्याओं पर उत्तमोत्तम पूर्तियाँ इस पत्र में प्रकाशित हुईं। कुन्दनलालजी ने अच्छी-अच्छी पूर्तियों के उपलक्ष्य मे कवियों को सोने-चांदी के पदक, घड़ियाँ, पगड़ी आदि देकर उनका उत्साह खूब बढ़ाया।

कविता और चित्रकला के ऐसे प्रेमी को कुटिल काल ने बहुत दिनो तक इस लोक में न रहने दिया। पण्डित कुन्दन-लालजी पहले श्वास-रोग से दुखी रहा करते थे। पर अब वे वात-व्याधि से पीड़ित हो गये। उन पर फ़ालिज का दौरा हुआ। वे फतेहगढ़ से जयपुर गये। उनके कुटुम्बी वहीं थे। वहाँ चिकित्सा से पहले कुछ आराम भी हुआ। पर तीसरे दौरे मे उसने पण्डितजी की जान लेकर ही कल की। संवत् १९५१ की चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को, सिर्फ ३६ वर्ष की उम्र में, उन्होंने शरीर छोड़ दिया। "कवि व चित्रकार" का निकलना बन्द हो गया। साथ ही कवियों को पदक और दुशाले मिलने भी बन्द हो गये। "कवि व चित्रकार" का जो अड्क उनकी मृत्यु के बाद निकला उसमे कितने ही कवियों ने