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पण्डित कुन्दनलाल


अपने देश की सुख्याति और विद्याभिरुचि की प्रेरणा से जो कुछ हमसे हो सकता है, करते हैं। हमने अपना आरोग्य नष्ट कर दिया, अपना समय नष्ट कर दिया, अपना रुपया नष्ट कर दिया; इस पर भी यदि "खाना-पसन्द" शाह को शोरबा अच्छा न लगे तो उस छाग के लिए शोक है जिसने अपनी जान खो दी!

इससे पण्डित कुन्दनलालजी के औदार्य, विद्याप्रेम और स्वदेशाभिमान का अच्छा परिचय मिलता है। इतनी हानि उठाकर और इतना आत्महितोत्सर्ग करके भी पण्डितजी हिन्दी बोलनेवालों की सहानुभूति न प्राप्त कर सके। यह हिन्दी-भाषा-भाषियों के लिए बहुत बड़े कलङ्क की बात है। यह चौदह-पन्द्रह वर्ष पहले की दशा का वर्णन है। पर अब तक यह दुरवस्था प्रायः पूर्ववत् बनी हुई है। अब तक हिन्दी-पत्रों, पत्रिकाओं और पुस्तको का विशेष आदर नही है। अब तक हिन्दी बोलनेवाली माता के सपूत हिन्दी मे ख़्वाब देखना छोड़कर लिखना, पढ़ना पसन्द नही करते। देखें कब तक यह उदासीनता अटल रहती है---

"कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी"

इस लेख की बहुत कुछ सामग्री भेजने के लिए हम फ़तेहगढ़ के म्यूनीसिपल कमिश्नर, वावू हरप्रसादजी, के बहुत कृतज्ञ हैं।

[ अगस्त १९०७

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