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खग्रास

नियन्त्रण चाहता था परन्तु एक तो ब्रिटेन ने अरब राष्ट्रो के बीच इजरायली यहूदी राष्ट्र को प्रश्रय दिया, दूसरे स्वेज़ को उसने शुभेच्छा से खाली नहीं किया। इसके अतिरिक्त वह 'नाटो' के समान मध्यपूर्व राष्ट्रसंघ बनाने की भी चेष्टा कर रहा था परन्तु वह विफल मनोरथ रहा। तब उसने बगदाद संधि का आश्रय लिया और अरब संघ को खतरे में डाल दिया। बगदाद संधि को मिस्र और सीरिया ने अपने लिए एक चुनौती समझा और उन्होने सन्- १९५५ में सयुक्त सुरक्षा व्यवस्था बनाई और १९५६ में दोनो की सैनाओ का सेनापति एक हो गया। इगलैन्ड और फ्रांस ने इसी समय स्वेज के प्रश्न को लेकर मिस्र पर आक्रमण कर दिया। दूसरी ओर इसराइली राज्य ने भी आक्रमण कर दिया। सीरिया ने इस अवसर पर मिस्र की सहायता की। बाद में जब तुर्की ने सीरिया की सीमा पर सेना का जमाव किया तो मिस्र ने उसकी सहायता के लिए सेनाएँ भेजी। इसने दोनो को एक वी ('V') बना दिया।

सीरिया ओर मिश्र में लोकतन्त्री शासन था इसलिये दोनो मिल गए। पर ईराक, जोर्डन, सऊदी अरब और यमन में कबीले शासक थे जिनमे वंशानुवश गत राज्य परम्पार थी। इन्हें विदेशी सहायता प्राप्त थी। सऊदी अरब में अमरीकी अड्डे थे। जोर्डन और ईराक में ब्रिटिश प्रभाव था। अदन अभी भी ब्रिटिश सुरक्षित राज्य था। लेबनान अरब होते हुए भी ईसाई था। और अमरीका के साथ बन्धा था। फिर सबके बीच इसराइली यहूदी राज्य था। पश्चिमी राष्ट्र नहीं चाहते थे कि अरब राष्ट्रो का स्वतन्त्र संगठन हो। तेल की रायल्टी पर पलने वाले सुलतान और बादशाह अमरीका और ब्रिटेन के परमुखापेक्षी थे परन्तु मिस्र और सीरिया का मिलन संयुक्त अरब राज्य का पूर्वरूप था। भारत के लिए, जो विश्व के दोनो विरोधी गुटो से पृथक्त था तटस्थ है, अरब राष्ट्र की नई शक्ति का उदय एक अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना थी। यह साधारण घटना न थी कि चार करोड़ अरबो में से सवा दो करोड़ अरब संयुक्त अरब राज्य का संगठन कर रहे थे। सातवी शताब्दी में तुर्कों के प्रबल आक्रमण से छिन्न-भिन्न अरब राष्ट्र अब ८०० वर्ष बाद फिर उदय हो रहा था।