तिवारी ने एक छड उठाकर देखा—ठोस सोने की थी। कल्पना से अत्यधिक सोना देखकर तिवारी विमूढ हो गए—वह टुकुर-टुकुर बाला का मुँह ताकते खडे रहे। वाला ने कहा—"देख क्या रहे है? उठा लीजिए जितना चाहे।"
"जितना चाहूँ उठा लूं?"
"उठा लीजिए।"
"परन्तु यह तो बहुत कीमत की चीज़ है।"
"होगी, उनके लिए जो कीमत देते और लेते है। हम लोग तो न कीमत लेते है, न देते है।"
"आपके पास इतना सोना आया कहाँ से?"
"पापा ने रसायन द्वारा बनाया है।"
"किस चीज़ से?"
"सीसा धातु से। यहाँ निकट ही पहाड मे सीसे की एक गुप्त खान है, जिसका किसी को पता नही है?"
"क्या वे जितना चाहे सोना बना सकते है?"
"हाँ?"
"इसका वे क्या करते हे?"
"कुछ नही। जरूरतमन्द लोगो को दे देते हैं।"
"लेकिन मैने सुना बहुत थोडा देते है।"
"जितना पात्र हो उतना ही। पापा सब काम विचार पूर्वक करते है।"
"लेकिन मुझे आप जितना चाहे उठा ले जाने को कह रही है।"
"उठा ले जाइए न, जितना उठा सके।"
"खैर, अब आप कृपा कर यहाँ से बाहर चलिए।"
"क्यो? क्या सोना नही लेगें?"
"नही।"
"क्या संकोच लगा?"