इस पर वे बड़े क्रोध के साथ केवल इतना ही कह कर चुप हो गए कि,--"तब तो, तेरा फांसी पड़ जाना ही ठीक होगा।"
इसपर मैने भी मन ही मन हंसकर यों कहा,--"जी हां, मैं भी इसे ही अच्छा समझती हूँ; क्योंकि अब मुझ अभागिन को कोई भी नहीं अपनाने का।"
बस, फिर वे मुझसे कुछ न बोले । यों ही जब गाड़ी कचहरी पहुंच कर ठहर गई, तब मैंने आंख उठाकर क्या देखा कि, 'उंगलियों के साथ हजारों आदमियों की निगाहें मेरी ओर उठ रही हैं !!!'
यह तमाशा देख कर मारे लाज के मैने अपनी आंखें नीची कर ली और मन ही मन भगवती को पुकारना प्रारम्भ किया।
सो, गाड़ी के ठहरने पर पछिले तो वे तीनों, कांस्टेबिल नीचे उतर कर दरवाजे के मागे आ खड़े हुए, इसके बाद खुद दरवाजा खोल फर कोतवाल साहब उतरे । आपके पीछे मैं उतारी गई और वहांसे चल कर एक जंगलेदार बड़ी कोठरी में बंद की गई।
तो, यह क्यों किया गया ? इसलिये कि मजिस्ट्रेट साहब के माने में तब भी कुछ देर थी। सो, अबतक कैदी उनके सामने पेश न कर दिए जाते, तबतक इसी कोठरी में रक्खे जाते थे। इसी नियम के अनुसार मैं भी उसी कोठरी में बन्द को गई। उस कोठरी में सिवाय खाली जमीन के, और कुछ भी बैठने के लिये न था। इसलिये लाचार, मैं भी उसी ठंढी धरती में बैठ गई और अपने राम को याद करने लगी! हाय, रे दुर्भाग्य ! तेरी महिमा का पार कोई भी नहीं पा सफता! ठीक एसी समय बाहर से कोई गुसाई तुलसीदास का यह भजन गा उठा कि, " फरमगति टारे नाहिं रै!" वह भजन मुझे पूरा स्मरण था, इसलिये मैं ध्यान से सुनने और मन ही भन उसे दोहराने-तेहराने लग गई थी।