बकट बाेल गया है। इस वाशटे अब डुबारा उस बाट का कहने का कोई जरूरत नई है।"
इस पर मैंने फिर यों पूछा,—"खैर, तो मेरे रसूलपुर गांव में दिप हुए इजहार के पढ़ने के बाद कोतवाल साहब ने वहां के चौकीदार रामदयाल वगैरह के इजहार को पढ़कर हाकिम को सुनाया था। इस इजहार की बात भी मैं आपके सामने अपनी कहानी के सिल सिले में सुना गई है, इसलिये अब उसके लिये क्या हुकुम होता है?" (१)
साहब बहादुर ने इस पर यों कहा,—"ठीक बाट है, अब उश इजहार के शुनाने का कोई काम नई है। इश वाशटे अब टुम अपना वह इजहार सुनाओं, जो कानपुर की कोटवाली में कोटवाल साहब का आगे दिया ठा।"
में यह सुनकर मैने कहा,—" साहब, मैने कोतवाल साहब के आगे, कोतवाली में आने पर अपना कोई इजहार नहीं लिखाया था। बलिक उन्होंने जो एफ कोरे कागज पर जबरदस्ती मेरे अंगूठे का निशान ले लिया था, उस पर अपगे मन-मानता मेरा बयान खुद लिख लिया था। यह बात मैं अभी आपके आगे कह गई हूँ।
साहब ने कहा,—"हां, ठीक बाट है, अच्छा, अब टुम वही बयान बोलो।"
इस पर—"बहुत अच्छा"—कहकर मैगे यों कहा,—"महोदय, इस प्रकार जब कोतवाल साहब मेरे रसूलपुर गांव में दिए हुए, इजहार और उसके बाद रामदयाल इत्यादि चौकीदारों के दिए हुए, बयान को पढ़ चुके, तब उन्होंने हाकिम के कहने से यह कागज पढ़ना प्रारम्भ किया, जिस पर मेरे अंगूठे की छाप बरजोरी लेली गई थी और जिसमें कोतवाल साहब ने अपने मन-मानता मजमून
(१) सोलहवां परिच्छेद देखो।