जरा सा मुस्कुराकर मैने कहा,---" आपका कहना बिलकुल ठीक है, पर मेरी समझ में तो यह आता है कि जिस अधम नारी को सात सात खून करने के अपराध लगाए गए, उमका संसार से उठ जाना ही ठीक है, क्योकि मुझ जैसी घृणित स्त्री यदि जेल से छटेगी भी, तो वह फिर संमार में कहां खड़ी होगी, किस तरह लोगों को अपना कालामुहं दिखलावेगी और किसकी सरन गहेगी ? आपलोगों को कदाचित यह बात मेरे इजहार के देखने से भलीभांति मालूम होगई होगी कि इस संसार में अब मेरा कोई नहीं है। मैं कुमारी हूं और सात मान खून करने के अपराध में जेल की कालकोठरी में पड़ी हुई भरपूर सांसत भोग रही हूँ। अब इस दशा को पहुंचकर भी, यदि मैं किसी भांति छूट जाऊं तो मेरे छुटने से संसार की क्या भलाई होगी और मुझ "खूनी औरत" को कौन अपनावेगा ? तब मेरी यह दशा होगी कि मैं समाज से दुर्दराई जाफर इधर उधर की ठोकरें खातो हुई भीख मांगती डोलूंगी और न जाने कैसे कैसे घार संकटों का सामना करूंगी । ऐसी अवस्था में उस घृणित जीबन से इस फांसी की तखती को मैं कड़ार गुना अच्छी समझती हूं । इसलिये आपलोगों से मैं हाथ जोड़ कर यह विनती करती हूं कि आपलोग मुझे बचाकर और भी घोगतिधीर दुःखसागर में यों डुबाने का प्रयत्न न करें और मुझे सुख से मरने दें। आपलोगों ने जो निःस्वार्थ भाव से मेरे लिये इतना कुछ किया, इसी के लिये मैं हृदय से आप लोगों की कृतज्ञ हूं और असंख्य धन्यवाद आपलोगों को देती हूं।"
बस, इतना कहते कहते मैं फूट फूट कर रोने लगी और देर
तक रोया की। फिर बारिस्टर साहब और जासूस साहब के
बहुत कुछ समझाने पर मेरा चित्त कुछ शान्त हुआ और जासूस
भाई दयालसिंहजी ने यों कहा,---'दुलारी, मैं समझता हूं कि तुम