पृष्ठ:खूनी औरत का सात ख़ून.djvu/१३०

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( १२६ ). खूनो गौरत का . . . .. . . . " . " " . " r . " v v . वह तुरत उस कोठी के दरवाजे पर आया और कोठरी में अंधेरा देश कर गाला,-'दीया बुझा दिया था ? ' इस पर मैने "हां" कहा। इस पर फिर वह बोला,-' धाना कहां गयो ?' इसका मैने यो जवाय दिया कि, 'वह बाहर गया है । बस, भष तुम जल्द भीतर आया और अपना काम कर के बाहर चले जाओ।' मेरी ऐसी बात सुनकर वह उस कोठरी के अन्दर ज्योंहीं घुला, त्योंही मैने उसे भी एक ही हाथ में दो टूक करके जमीन में गिरा दिया। यस, दो-दो आदमियों को फाटफर फिर तो मैं पूरी-पूरी निडर होगई गौर छिन भर ठहर कर फिर मैगे गडदू को आवाज दी। मेरी आवाज सुनकर वह उठ दौड़ा और इस तेजो के साथ मेरी कोठरी में घुसा कि उसके कलेजे में तलवार घुसेड़ते मुझे जरा भी देर न लगी। देर तो न लगी, पर कलेजे में तलवार घुसेड़ कर मैने अच्छा काम नहीं किया था । इस बात का मतलय यह है कि तल्वार भोंकी जाने पर वह इतगे जोर से चीख मार उठा कि उसे सुनकर कालू तुरत मेरी कोठी की ओर यों चिल्लाता हुआ दौड़ा कि, " क्या हुआ, कैसा हुआ !!!" पर कोठरी के अन्दर घुसते घुसते उस पर भी मैने तल्वार का वार किया और वह घायल होकर-“दगा-दगा "-कहता हुआ धरती में गिरकर छटपटामे गौर बार बार पानी मांगने लगा। यह सुनकर मैंने उस कोठरी में दीया पालकर उजाला फिया और बाहर से पानी की फलसी लाकर कालू को कुछ थोड़ा सा जल पिलाया। थोड़ी ही देर में जब यह मर गया, तब मैं अपगे घर से बाहर हुई। बाहर निकलते ही अपने घर के द्वार पर मैगे अपनी बैलगाली जुता हुई तयार देखी, जिसमें मेरे ही दो बैल जुत रहे थे। यह देखकर मैं इस पर संघार हुई और रसूलपुर गांव की भोर चली । मेरे गांघ का थाना जल गया था, इसलिये मैं रसूलपुर की ओर चली । मैं उस समय, चाहे जिधर, भाग सकती थो, पर यह सोचकर कहीं न भागकर