पृष्ठ:खूनी औरत का सात ख़ून.djvu/१५७

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सात खून । (१५३) चौबीसवां परिच्छेद । चाचा! . “सतीनां तु बहिष्कारः, समाजे यत्रे दृश्यते। स्वीकारश्वासतीनां सः, प्रयातु विलयं त्वरित् , ॥ (व्यासः) नोंद जब खुल गई, तब मैंने क्या देखा कि पुनो और मुनी मेरे पैर दाब रही हैं। यह देखकर मैं उठ बैठी और वाला खुलवा- कर उन दोनों के साथ नहाने-धोने चली गई । उस समय सात बज गए थे। एक घण्टे में जब हम सब निबट कर भागई, तब पुन्नी मुन्नी तो रसोई खाने चली गई और मैं अपनी कोठरी में बेठकर भगवान का ध्यान करने लगी! नारायण का स्मरण तो मैं नित्य ही किया करती थी, पर आज बहुत ही जी लगाकर भजन- सुमिरन करने लगी । दस बजे जेलर साहब आए और मुझे दूध पिला कर बोले कि,-" श्राज बारिस्टर साहब का पत्र लेकर एक सज्जन तुमसे मिलने आए हैं । वे अपने को तुम्हारा चचा और अपना नाम रघुनाथ प्रसाद तिवारी बतलाते हैं । यदि तुम उनसे मिलना चाहो तो उन्हें मैं यहीं पहुंचा दूं।" का यह सुनकर मैंने जब “हामी भरी, तब जेलर साहब चले गए और थोड़ी ही देर में एक कैदी से एक कुर्सी लिवाए हुए जेलर साहब मेरे चचा के साथ श्रा पहुंचे । चचा को देखते ही मैं लिर पीट और बड़े जोर से पुक्का फाड़ कर रोने लगी। चचा भी डाढ़े मार कर रो उठे और जेलर साहब, पारी पारी से हम दोनों को समझाने बुझाने लगे । मैंने देखा कि जेलर साहब भी कमाल से अपनी आंखें पोंछ रहे हैं और वे दोनों पुत्री मुन्नी भी बाहर खड़ी हुई रो रही हैं।