पच्चीसवां परिच्छेद।
दुःख—सुख।
"अचिन्तितानि दुःखानि,
बथैवायान्ति देहिनाम्।
सुखान्यपि तथा मन्ये,
दैवमत्रास्ति कारणम्॥"
(व्यासः)
मैं यह कह आई हूं कि फागुन का महीना बीत रहा था। सो, देखते देखते जेल के अन्दर ही फागुन के साथही साथ होली भी बीत गई और चैत का महीना प्रारम्भ होगया! चचाभी मुझसे मिल-भेट गए और मेरा भी संझा-सबेरा वैसे ही होने लगा, जैसे अब तक होता था। हां, यह बात अवश्य थी कि पहिले की अपेक्षा अब मैं बड़े आराम से रहती थी और सज्जन जेलर साहब के ढाढ़स से मेरा चित्त बहुतही स्वस्थ रहता था। बेचारी पुन्नी और मुन्नी भी सच्चे जी से मेरी टहल-चाकरी करतीं और उन दोनों की संगत से मेरे दिन-रात मजे में कटते थे। यह सब था, पर बारिस्टर साहब तो जो गए हो गए। वे चचा के साथ आने की बात कह गए थे, परन्तु मेरे ही मामले—मुकद्दमे की पैरवी के सबव वे तो नहीं आए, पर चाचा आए थे। इसके बाद फागुन बीत गया और चैत आधमका, पर अभी तक बारिस्टर साहब या जासूस साहब का कोई पता-ठिकाना नहीं! बस, इन्हीं बातों को सोच सोचकर मेरा जी रह रहकर बहुत ही घबरा उठता था, पर पुन्नी—मुन्नी और जेलर साहब के ढाढ़स देने से मैं अपनी उस उमड़ती हुई उदासी को किसी किसी तरह दबाती और भगवान का सुमरन किया करती थी, इसी भांति रो झींखकर या हँसी-खुशी मेरे दिन कटते जाते थे।
एक दिन दो पहर के समय, जब में पुन्नी—मुन्नी के साथ