अट्ठाईसवां परिच्छेद।
बिवाह ।
"निशा शशांक शिवया गिरीशं,
श्रिया हरि योजयतः प्रतीतः।
विधेरपि स्वारसिकप्रयास:,
परस्परं योग्य समागमाय॥"
पांच बजे एक कांस्टेबिल आकर हम लोगों के वे कपड़े दे गया, जिन्हें पहने हुई हम लोग जेल के अन्दर आई थीं। बस, मैंने अपने कपड़े पहिर आढ़ लिये, और पुन्नी-मुन्नी ने अपने अपने । इसके बाद वह सिपाही हम लोगों के उतारे हुए कपड़े लेकर चला गया और उसके जाने के थोड़ी ही देर बाद जेलर साहब पाए। '
उन्हें हम सभी ने पालागन किया और उन्होंने असीस देकर पुत्री के हाथ में पचास रुपये देते हुए यों कहा,-"लो, ये तुम्हारी सचाई के इनाम हैं।"
पाठक यह बात भली भांति समझ गए होंगे कि ये रुपये लकीलाल के जुर्माने में ले पुनी-मुन्नी को अदालत से मिले थे।
अस्तु, जेलर साहब तो रुपये देकर चले गए, पर उन रुपयों में से दस रुपये निकाल कर बाकी के रुपये पुन्नी ने मेरे पैरों पर रख दिये और यों कहा,-"लीजिए, इन्हें अपने पास जमा कर रखिये । जब काम पड़ेगा, तब ले लूंगी।"
पुन्नी के रंग ढंग देख और मुस्कुराकर मैंने उन रुपयों को उठाकर अपने आंचल के छोर में बांध लिया और कुछ कहना चाहा: पर कह न सकी; क्यों कि मेरे बराबर की दो लड़कियों के साथ एक बंगालिन स्त्री वहां पर आई, उसके पीछे पीछे जेलर साहब भी थे।