सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:खूनी औरत का सात ख़ून.djvu/७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ७४ )
खूनी औरत का


इस आड़े-पाले में खुले मैदान में रहने से आपलोगों को बड़ा कष्ट होगा । पर क्या करूं, मैं लाचार हूं। क्योंकि दोरोगा और हींगन की करतून देखकर अब मुझे किसी पर जरा भी भरोसा नहीं होता। इसलिये अब, तबतक मैं इस कोठरी का दरवाजा कभी न खोलूंगी, जबतक कि कोई अङ्ग्रेज अफ़सर यहां पर न आजायगा।"

मेरी बात सुनकर दियानत हुसेन और रामदयाल पारी पारी से यों कहा कि,--"नहीं दुलारी, तुम कोई अन्देशा न करो और हमलोगों पर भरोसा रखो, क्योंकि हमलोग पराई औरतों को मां, बहन और बेटी के बराबर समझते हैं।"

यह सुन कर वाकी के चारों चौकीदारों ने भी ऐसा ही कहा, पर मैने उनसभों की बातों पर विश्वास न करके यों कहा-- "आपलोगों ने जो कुछ कहा , वह ठीक है; पर यह कहावत भी आपलोगों ने जरूर ही सुनी होगी कि, 'गरम दूध से जिसकी जीभ जल जाती है,वह मनुष्य ठंढे मठे को भी फूंक फूंक कर पीता है। इसलिये मुझ निगोड़ी के कारण आपलोग एक रात का कष्ट भोग लें और इस दरवाजे के खुलवाने के लिये जादे हठ न करें। आप यह निश्चय जानें कि अब यह दरवाजा तभी खुलेगा, जब कोई अंगरेज अफसर यहां आवेगा । देखिए, सामने उस पेड़ के नीचे जो दो तखत पड़े हुए हैं, उन पर आपलोग ओज को रात आराम कीजिए और लकड़ियों को जला कर जाड़े का कष्ट दूर करिए। हां, इतना आप कर सकते हैं कि इस दरवाजे की सांकल बाहर से बंद करके उसमें ताला लगा दें।"

मेरा ऐसा हठ देखकर वे सप फिर आप ही आप भुनभुना कर चुप होगए और एक चौकीदार ने बाहर से ताला लगा कर अपने साथियों से यों कहा,--"ऐसी जबरदस्त औरत तो देखने ही में नहीं आई !!!"

इस पर दूसरे ने यों कहा,--"तब तो इस अकेली ने सास-सात