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रमेश अपने बाप से कहते भी शर्म आती है? अगर अपने लोगों में यह संकोच न होता तो आज हमारी यह दशा क्यों होती? रमेश बाबू चले गए तो रमा ने पत्र उठाकर जेब में डाला और उसे जालपा को देने का निश्चय करके घर में गया। जालपा आज किसी महिला के घर जाने को तैयार थी। थोड़ी देर हुई, बुलावा आ गया। उसने अपनी सबसे सुंदर साड़ी पहनी थी। हाथों में जड़ाऊ कंगन शोभा दे रहे थे, गले में चंद्रहार, आईना सामने रखे हुए कानों में झुमके पहन रही थी। रमा को देखकर बोली-आज सबेरे कहाँ चले गए थे? हाथ-मुँह तक न धोया। दिन भर तो बाहर रहते ही हो, शामसबेरे तो घर पर रहा करो। तुम नहीं रहते तो घर सूना-सूना लगता है। मैं अभी सोच रही थी, मुझे मैके जाना पड़े तो मैं जाऊँ या न जाऊँ? मेरा जी तो वहाँ बिल्कुल न लगे।

रमानाथ—तुम तो कहीं जाने को तैयार बैठी हो।

जालपा सेठानीजी ने बुला भेजा है, दोपहर तक चली आऊँगी रमा की दशा इस समय उस शिकारी की सी थी, जो हिरनी को अपने शावकों के साथ किलोल करते देखकर तनी हुई बंदूक कंधे पर रख लेता है और वह वात्सल्य

और प्रेम की क्रीड़ा देखने में तल्लीन हो जाता है। उसे अपनी ओर टकटकी लगाए देखकर जालपा ने मुसकराकर कहा-देखो, मुझे नजर न लगा देना। मैं तुम्हारी आँखों से बहुत डरती हूँ।

रमा एक ही उड़ान में वास्तविक संसार से कल्पना और कवित्व के संसार में जा पहुँचा। ऐसे अवसर पर जब जालपा का रोम-रोम आनंद से नाच रहा है, क्या वह अपना पत्र देकर उसकी सुखद कल्पनाओं को दलित कर देगा? वह कौन हृदयहीन व्याध है, जो चहकती हुई चिडिया की गरदन पर छुरी चला देगा? वह कौन 3 आदमी है, जो किसी प्रभात-कुसुम को तोड़कर पैरों से कुचल डालेगा-रमा इतना हृदयहीन, इतना अरसिक नहीं है। वह जालपा पर इतना बड़ा आघात नहीं कर सकता। उसके सिर कैसी ही विपत्ति क्यों न पड़ जाए, उसकी कितनी ही बदनामी क्यों न हो, उसका जीवन ही क्यों न कुचल दिया जाए, पर वह इतना निष्ठुर नहीं हो सकता। उसने अनुरक्त होकर कहा-नजर तो न लगाऊँगा, हाँ, हृदय से लगा लूँगा। इसी एक वाक्य में उसकी सारी चिंताएँ, सारी बाधाएँ विसर्जित हो गईं। स्नेह-संकोच की वेदी पर उसने अपने को भेंट कर दिया। इसके सामने जीवन के और सारे क्लेश तुच्छ थे। इस समय उसकी दशा उस बालक की सी थी, जो फोड़े पर नश्तर की क्षणिक पीड़ा न सहकर उसके फटने, नासूर पड़ने, वर्षों खाट पर पड़े रहने और कदाचित् प्राणांत हो जाने के भय को भी भूल जाता है। जालपा नीचे जाने लगी तो रमा ने कातर होकर उसे गले से लगा लिया और इस तरह भींच-भींचकर उसे आलिंगन में लेने लगा, मानो यह सौभाग्य उसे फिर न मिलेगा। कौन जानता है, यही उसका अंतिम आलिंगन हो। उसके करपाश मानो रेशम के सहस्रों तारों से संगठित होकर जालपा से चिमट गए थे। मानो कोई मरणासन्न कृपण अपने कोष की कुंजी मुट्ठी में बंद किए हो और प्रतिक्षण मुट्ठी कठोर पड़ती जाती हो। क्या मुट्ठी को बलपूर्वक खोल देने से ही उसके प्राण न निकल जाएँगे?

सहसा जालपा बोली-मुझे कुछ रुपए तो दे दो, शायद वहाँ कुछ जरूरत पड़े। रमा ने चौंककर कहा–रुपए! रुपए तो इस वक्त नहीं हैं। जालपा हैं, हैं, मुझसे बहाना कर रहे हो। बस मुझे दो रुपए दे दो और ज्यादा नहीं चाहती।