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रमानाथ की चाय की दुकान खुल तो गई, पर केवल रात को खुलती थी। दिन भर बंद रहती थी। रात को भी अधिकतर देवीदीन ही दुकान पर बैठता, पर बिक्री अच्छी हो जाती थी। पहले ही दिन तीन रुपए के पैसे आए, दूसरे दिन से चार-पाँच रुपए का औसत पड़ने लगा। चाय इतनी स्वादिष्ट होती थी कि जो एक बार यहाँ चाय पी लेता, फिर दूसरी दुकान पर न जाता। रमा ने मनोरंजन की भी कुछ सामग्री जमा कर दीं। कुछ रुपए जमा हो गए, तो उसने एक सुंदर मेज ली। चिराग जलने के बाद साग-भाजी की बिक्री ज्यादा न होती थी। वह उन टोकरों को उठाकर अंदर रख देता और बरामदे में वह मेज लगा देता। उस पर ताश के सेट रख देता। दो दैनिक-पत्र भी मँगाने लगा। दुकान चल निकली। उन्हीं तीन-चार घंटों में छह-सात रुपए आ जाते थे और सब खर्च निकालकर तीन-चार रुपए बच रहते थे।

इन चार महीनों की तपस्या ने रमा की भोग-लालसा को और भी प्रचंड कर दिया था। जब तक हाथ में रुपए न थे, वह मजबूर था। रुपए आते ही सैर-सपाटे की धुन सवार हो गई। सिनेमा की याद भी आई। रोज के व्यवहार की मामूली चीजें, जिन्हें अब तक वह टालता आया था, अब अबाध रूप से आने लगीं। देवीदीन के लिए वह एक सुंदर रेशमी चादर लाया। जग्गो के सिर में पीड़ा होती रहती थी। एक दिन सुगंधित तेल की शीशियाँ लाकर उसे दे दी। दोनों निहाल हो गए। अब बुढिया कभी अपने सिर पर बोझ लाती तो डाँटता–काकी, अब तो मैं भी चार पैसे कमाने लगा हूँ, अब तू क्यों जान देती है? अगर फिर कभी तेरे सिर पर टोकरी देखी तो कहे देता हूँ, दुकान उठाकर फेंक दूँगा। फिर मुझे जो सजा चाहे, दे देना। बुढिया बेटे की डाँट सुनकर गद्गद हो जाती। मंडी से बोझ लाती तो पहले चुपके से देखती, रमा दुकान पर नहीं है। अगर वह बैठा होता तो किसी कुली को एक-दो पैसा देकर उसके सिर पर रख देती। वह न होता तो लपकी हुई आती और जल्दी से बोझ उतारकर शांत बैठ जाती, जिससे रमा भाँप न सके।

एक दिन 'मनोरमा थियेटर' में राधेश्याम का कोई नया ड्रामा होने वाला था। इस ड्रामे की बड़ी धूम थी। एक दिन पहले से ही लोग अपनी जगहें रक्षित करा रहे थे। रमा को भी अपनी जगह रक्षित करा लेने की धुन सवार हुई। सोचा, कहीं रात को टिकट न मिला तो टापते रह जाएँगे। तमाशे की बड़ी तारीफ है। उस वक्त एक के दो देने पर भी जगह न मिलेगी। इसी उत्सुकता ने पुलिस के भय को भी पीछे डाल दिया। ऐसी आफत नहीं आई है कि घर से निकलते ही पुलिस पकड़ लेगी। दिन को न सही, रात को तो निकलता ही हूँ। पुलिस चाहती तो क्या रात को न पकड़ लेती। फिर मेरा वह हुलिया भी नहीं रहा। पगड़ी चेहरा बदल देने के लिए काफी है। यों मन को समझाकर वह दस बजे घर से निकला। देवीदीन कहीं गया हुआ था। बुढिया ने पूछा-कहाँ जाते हो, बेटा। रमा ने कहा-कहीं नहीं काकी, अभी आता हूँ।

रमा सड़क पर आया, तो उसका साहस हिम की भाँति पिघलने लगा। उसे पग-पग पर शंका होती थी, कोई कांस्टेबल न आ रहा हो। उसे विश्वास था कि पुलिस का एक-एक चौकीदार भी उसका हलिया पहचानता है और उसके चेहरे पर निगाह पड़ते ही पहचान लेगा। इसलिए वह नीचे सिर झुकाए चल रहा था। सहसा उसे खयाल आया, गुप्त पुलिस वाले सादे कपड़े पहने इधर-उधर घूमा करते हैं। कौन जाने, जो आदमी मेरे बगल में आ रहा है, कोई जासूस ही हो, मेरी ओर ध्यान से देख रहा है। यों सिर झुकाकर चलने से ही तो नहीं उसे संदेह हो रहा है। यहाँ और सभी सामने ताक रहे हैं। कोई यों सिर झुकाकर नहीं चल रहा है। मोटरों की इस रेल-पेल में सिर झुकाकर