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है? सबों के मुँह में कालिख लग जाएगी। मुँह तो दिखाया न जाएगा, मुकदमा क्या चलाएँगे?

मगर नहीं, इन्होंने मुझसे चाल चली है, तो मैं भी इनसे वही चाल चलूँगा। कह दूँगा, अगर मुझे आज कोई अच्छी जगह मिल जाएगी, तो मैं शहादत दूँगा, वरना साफ कह दूँगा, इस मामले से मेरा कोई संबंध नहीं। नहीं तो पीछे से किसी छोटे-मोटे थाने में नायब दारोगा बनाकर भेज दें और वहाँ सड़ा करूँ। लूँगा इंस्पेक्टरी और कल दस बजे मेरे पास नियुक्ति का परवाना आ जाना चाहिए।

वह चला कि इसी वक्त दारोगा से कह दूँ, लेकिन फिर रुक गया। एक बार जालपा से मिलने के लिए उसके प्राण तड़प रहे थे। उसके प्रति इतना अनुराग, इतनी श्रद्धा उसे कभी न हुई थी, मानो वह कोई दैवी-शक्ति हो, जिसे देवताओं ने उसकी रक्षा के लिए भेजा हो। दस बज गए थे। रमानाथ ने बिजली गुल कर दी और बरामदे में आकर जोर से किवाड़ बंद कर दिए, जिसमें पहरे वाले सिपाही को मालूम हो, अंदर से किवाड़ बंद करके सो रहे हैं। वह अँधेरे बरामदे में एक मिनट खड़ा रहा। तब आहिस्ता से उतरा और काँटेदार फेंसिंग के पास आकर सोचने लगा, उस पार कैसे जाऊँ? शायद अभी जालपा बगीचे में हो, देवीदीन जरूर उसके साथ होगा। केवल यही तार उसकी राह रोके हुए था। उसे फाँद जाना असंभव था। उसने तारों के बीच से होकर निकल जाने का निश्चय किया। अपने सब कपड़े समेट लिए और काँटों को बचाता हुआ सिर और कंधों को तार के बीच में डाला, पर न जाने कैसे कपड़े फँस गए। उसने हाथ से कपड़ों को छुड़ाना चाहा, तो आस्तीन काँटों में फँस गई। धोती भी उलझी हुई थी। बेचारा बड़े संकट में पड़ा। न इस पार जा सकता था, न उस पार, जरा भी असावधानी हुई और काँटे उसकी देह में चुभ जाएँगे।

मगर इस वक्त उसे कपड़ों की परवाह न थी। उसने गरदन और आगे बढ़ाई और कपड़ों में लंबा चीरा लगाता उस पार निकल गया। सारे कपड़े तार-तार हो गए। पीठ में भी कुछ खरोंचे लगी, पर इस समय कोई बंदूक का निशाना बाँधकर भी उसके सामने खड़ा हो जाता, तो भी वह पीछे न हटता। फटे हुए कुरते को उसने वहीं फेंक दिया, गले की चादर फट जाने पर भी काम दे सकती थी, उसे उसने ओढ़ लिया, धोती समेट ली और बगीचे में घूमने लगा। सन्नाटा था। शायद रखवाला खटीक खाना खाने गया हुआ था। उसने दो-तीन बार धीरे-धीरे जालपा का नाम लेकर पुकारा भी। किसी की आहट न मिली, पर निराशा होने पर भी मोह ने उसका गला न छोड़ा। उसने एक पेड़ के नीचे जाकर देखा। समझ गया, जालपा चली गई। वह उन्हीं पैरों देवीदीन के घर की ओर चला।

उसे जरा भी शोक न था। बला से किसी को मालूम हो जाए कि मैं बँगले से निकल आया हूँ, पुलिस मेरा कर ही क्या सकती है? मैं कैदी नहीं हूँ, गुलामी नहीं लिखाई है।

आधी रात हो गई थी। देवीदीन भी आधा घंटा पहले लौटा था और खाना खाने जा रहा था कि एक नंगे-धडंगे आदमी को देखकर चौंक पड़ा। रमा ने चादर सिर पर बाँध ली थी और देवीदीन को डराना चाहता था। देवीदीन ने सशंक होकर कहा-कौन है?

सहसा पहचान गया और झपटकर उसका हाथ पकड़ता हुआ बोला-तुमने तो भैया खूब भेस बनाया है? कपड़े क्या हुए?

रमानाथ–तार से निकल रहा था। सब उसके काँटों में उलझकर फट गए।

देवीदीन-राम राम! देह में तो काँटे नहीं चुभे?