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हूँ और ब्रह्मी-लेडियों को देखती हूँ, कोई उनकी तरफ आँखें तक नहीं उठाता। मेरा पहनावा-ओढ़ावा वही है, मैं भड़कीले कपड़े या फजूल के गहने बिल्कुल नहीं पहनती। फिर भी सब मेरी तरफ आँखें फाड़-फाड़कर देखते हैं। मेरी असलियत नहीं छिपती। यही खौफ मुझे था कि कहीं जालपा भाँप न जाए, लेकिन मैंने दाँत खूब साफ कर लिए थे। पान का निशान तक न था। मालूम होता था किसी कॉलेज की लेडी टीचर होगी। इस शक्ल में मैं वहाँ पहुँची। ऐसी सूरत बना ली कि वह क्या, कोई भी न भाँप सकता था। परदा ढका रह गया। मैंने दिनेश की माँ से कहा-मैं यहाँ यूनिवर्सिटी में पढ़ती हूँ। अपना घर मुँगेर बतलाया। बच्चों के लिए मिठाई ले गई थी। हमदर्द का पार्ट खेलने गई थी और मेरा खयाल है कि मैंने खूब खेला, दोनों औरतें बेचारी रोने लगीं। मैं भी जब्त न कर सकी। उनसे कभीकभी मिलते रहने का वादा किया। जालपा इसी बीच में गंगाजल लिए पहुँची। मैंने दिनेश की माँ से बँगला में पूछा-क्या यह कहारिन है? उसने कहा, नहीं, यह भी तुम्हारी ही तरह हम लोगों के दुःख में शरीक होने आ गई है। यहाँ इनका शौहर किसी दफ्तर में नौकर है। और तो कुछ नहीं मालूम, रोज सबेरे आ जाती हैं और बच्चों को खेलाने ले जाती हैं। मैं अपने हाथ से गंगाजल लाया करती थी। मुझे रोक दिया और खुद लाती हैं। हमें तो इन्होंने जीवनदान दिया। कोई आगे-पीछे न था। बच्चे दाने-दाने को तरसते थे। जब से यह आ गई हैं, हमें कोई कष्ट नहीं है। न जाने किस शुभ कर्म का यह वरदान हमें मिला है।

उस घर के सामने ही एक छोटा सा पार्क है। मुहल्ले भर के बच्चे वहीं खेला करते हैं। शाम हो गई थी, जालपा देवी ने दोनों बच्चों को साथ लिया और पार्क की तरफ चलीं। मैं जो मिठाई ले गई थी, उसमें से बूढ़ी ने एक-एक मिठाई दोनों बच्चों को दी थी। दोनों कूद-कूदकर नाचने लगे। बच्चों की इस खुशी पर मुझे रोना आ गया। दोनों मिठाइयाँ खाते हुए जालपा के साथ हो लिए। जब पार्क में दोनों बच्चे खेलने लगे, तब जालपा से मेरी बातें होने लगी! रमा ने कुरसी और करीब खींच ली और आगे को झुक गया। बोला—तुमने किस तरह बातचीत शुरू की।

जोहरा–कह तो रही हूँ। मैंने पूछा कि जालपा देवी, तुम कहाँ रहती हो? घर की दोनों औरतों से तुम्हारी बड़ाई सुनकर तुम्हारे ऊपर आशिक हो गई हूँ।

रमानाथ–यही लफ्ज कहा था तुमने?

जोहरा–हाँ, जरा मजाक करने की सूझी। मेरी तरफ ताज्जुब से देखकर बोली, तुम तो बंगालिन नहीं मालूम होतीं। इतनी साफ हिंदी कोई बंगालिन नहीं बोलती। मैंने कहा कि मैं मुंगेर की रहनेवाली हूँ और वहाँ मुसलमानी औरतों के साथ बहुत मिलती-जुलती रही हूँ। आपसे कभी-कभी मिलने का जी चाहता है। आप कहाँ रहती हैं? कभी-कभी दो घड़ी के लिए चली आऊँगी। आपके साथ घड़ी भर बैठकर मैं भी आदमीयत सीख जाऊँगी।

जालपा ने शरमाकर कहा-तुम तो मुझे बनाने लगीं, कहाँ तुम कॉलेज की पढ़ने वाली, कहाँ मैं अपढ़ गँवार औरत।

तुमसे मिलकर मैं अलबत्ता आदमी बन जाऊँगी। जब जी चाहे, यहीं चले आना। यही मेरा घर समझो।

मैंने कहा-तुम्हारे स्वामीजी ने तुम्हें इतनी आजादी दे रखी है। बड़े अच्छे खयालों के आदमी होंगे। किस दफ्तर में नौकर हैं?

जालपा ने अपने नाखूनों को देखते हुए कहा-पुलिस में उम्मेदवार हैं।